TANSEN/ तानसेन
तानसेन या रामतनु हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे। उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है।
संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभाएं संसार को दी हैं और संगीतकार सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं।[1]
तानसेन को संगीत का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? तानसेन हरिदास के साथ वृन्दावन संगीत की शिक्षा ग्रहण की। तानसेन ने मानसिंह की विधवा पत्नी मृगनयनी से संगीत की शिक्षा प्राप्त की।
प्रारम्भ से ही तानसेन मे दूसरों की नकल करने की अपूर्व क्षमता थी। बालक तानसेन पशु-पक्षियों की तरह- तरह की बोलियों की सच्ची नकल करता था और हिंसक पशुओं की बोली से लोगों को डराया करता था। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हो गयी । उनसे मिलने की भी एक मनोरंजक घटना है।
उनकी अलग-अलग बोलियों को बोलने की प्रतिभा को देखकर वो काफी प्रभावित हुए। स्वामी जी ने उन्हें उनके पिता से संगीत सिखाने के लिए माँग लिया।इस तरह तानसेन को संगीत का ज्ञान हुआ। 1586 में तानसेन की मृत्यु आगरा में हो गई। और संगीतकार तानसेन की इच्छा अनुसार मोहम्मद गौस के मकबरे के समीप तानसेन का मकबरा बनाया गया जो ग्वालियर में हैं।
1. 'संगीतसार',
2. 'रागमाला'
3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'।
भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।
संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। अपनी संगीत कला के रत्न थे। इस कारण उनका बड़ा सम्मान था। संगीत गायन के बिना अकबर का दरबार सूना रहता था। तानसेन के ताऊ बाबा रामदास उच्च कोटि के संगीतकार थे। वह वृंदावन के स्वामी हरिदास के शिष्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से बालक तानसेन ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा पाई। स्वामी हरिदास के पास तानसेन ने बारह वर्ष की आयु तक संगीत की शिक्षा पाई। वहीं उन्होंने साहित्य एवं संगीत शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की।
संगीत की शिक्षा प्राप्त करके तानसेन देश यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्हें संगीत-कला की प्रस्तुति पर बहुत प्रसिद्धि तो मिली, लेकिन गुजारे लायक धन की उपलब्धि नहीं हुई।
एक बार वह रीवा (मध्यप्रदेश) के राजा रामचंद्र के दरबार में गाने आए। उन्होंने तानसेन का नाम तो सुना था पर गायन नहीं सुना था। उस दिन तानसेन का गायन सुनकर राजा रामचंद्र मुग्ध हो गए। उसी दिन से तानसेन रीवा में ही रहने लगे और उन्हें राज गायक के रूप में हर तरह की आर्थिक सुविधा के साथ सामाजिक और राजनीतिक सम्मान दिया गया। तानसेन पचास वर्ष की आयु तक रीवा में रहे। इस अवधि में उन्होंने अपनी संगीत-साधना को मोहक और लालित्यपूर्ण बना लिया। हर ओर उनकी गायकी की प्रशंसा होने लगी।
अकबर के ही सलाहकार और नवरत्नों में से एक अब्दुल फजल ने तानसेन की संगीत की प्रशंसा में अकबर को चिट्ठीु लिखी और सुझाव दिया कि तानसेन को अकबरी-दरबार का नवरत्न होना चाहिए। अकबर तो कला-पारखी थे ही। ऐसे महान संगीतकार को रखकर अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए बेचैन हो उठे।
उन्होंने तानसेन को बुलावा भेजा और राजा रामचंद्र को पत्र लिखा। किंतु राजा रामचंद्र अपने दरबार के ऐसे कलारत्न को भेजने के लिए तैयार न हुए। बात बढ़ी और युद्ध तक पहुँच गई। और बहुत मान मनब्बल के बाद भी राजा रामचंद्र नहीं माने तो अकबर ने मुगलिया सल्तनत की एक छोटी से टुकड़ी तानसेन को जबरजस्ती लाने के लिए भेज दिया पर राजा राम चंद्र जूदेव और अकबर के सैनिको के बीच युद्ध हुआ और अकबर के सभी सैनिक मारे गए, इसमें रीवा राजा के भी कई सैनिक मारे गए ! इससे अकबर क्रुद्ध होकर एक बड़ी सैनिक टुकड़ी भेजी और रीवा के राजा फिर से युद्ध के लिए तैयार हुए तब तानसेन रीवा के राजा के पास पहुंचे और युद्ध न करने की अपील किया , पर राजा बहुत जिद्दी थे नहीं माने ! और अकबर के दरबार में संदेस भेज दिया की ''यदि बादशाह याचना पात्र भेजे तो मैं तानसेन को भेज दूंगा'' अकबर भी छोटी-छोटी सी बात पर राजपूतो से युद्ध नहीं करना चाहते थे ! तब अकबर ने याचना पात्र भेज दिया तब राजा रामचंद्र जूदेव ने सहर्ष, ससम्मान तानसेन को दिल्ली भेज दिया और एक बड़ा युद्ध टल गया ! अकबर के दरबार में आकर तानसेन पहले तो खुश न थे लेकिन धीरे-धीरे अकबर के प्रेम ने तानसेन को अपने निकट ला दिया।
चाँद खाँ और सूरज खाँ स्वयं न गा सकें। आखिर मुकाबला शुरू हुआ। उसे सुनने वालों ने कहा 'यह गलत राग है।' तब तानसेन ने शास्त्रीय आधार पर उस राग की शुद्धता सिद्ध कर दी। शत्रु वर्ग शांत हो गया।
संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। तानसेन को अपने दरबार में लाने के लिए अकबर की सेना और रीवा के बाघेला राजपूतो के बीच में भयानक युद्ध हुआ था ! अकबर के दरबार में तानसेन को नवरत्न की ख्यायति मिलने लगी थी। इस कारण उनके शत्रुओं की संख्यार भी बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद तानसेन का ठाकुर सन्मुख सिंह बीनकार से मुकाबला हुआ। वे बहुत ही मधुर बीन बजाते थे। दोनों में मुकाबला हुआ, किंतु सन्मुख सिंह बाजी हार गए। तानसेन ने भारतीय संगीत को बड़ा आदर दिलाया। उन्होंने कई राग-रागिनियों की भी रचना की। 'मियाँ की मल्हार' 'दरबारी कान्हड़ा' 'गूजरी टोड़ी' या 'मियाँ की टोड़ी' तानसेन की ही देन है। तानसेन कवि भी थे। उनकी काव्य कृतियों के नाम थे - 'रागमाला', 'संगीतसार' और 'गणेश स्रोत्र'। 'रागमाला' के आरंभ में दोहे दिए गए हैं।
सुर मुनि को परनायकरि, सुगम करौ संगीत।
तानसेन वाणी सरस जान गान की प्रीत।
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