Dayanand Saraswati/ दयानंद सरस्वती
दयानन्द सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के चिन्तक तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम 'मूलशंकर' था। उन्होंने वेदों के प्रचार के लिए मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। 'वेदों की ओर लौटो' यह उनका ही प्रमुख नारा था । उन्होने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म तथा सन्यास को अपने दर्शन के स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1876 में 'स्वराज्य' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजो को यह निर्देश भिजवाया कि 'सब सदस्य अपना धर्म ' सनातन धर्म' लिखवाएं।
दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फ़रवरी टंकारा में सन् 1824 में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। क्योंकि इनका जन्म धनु राशि और मूल नक्षत्र मे हुआ था इसीलिए स्वामी दयानन्द सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए। अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका विवाह किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (19वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके निकल पड़े।लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में
फाल्गुन कृष्ण संवत् 1895 में शिवरात्रि के दिन उनके जीवन में नया मोड़ आया। वे घर से निकल पड़े और यात्रा करते हुए वह गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। गुरु दक्षिणा में उन्होंने मांगा- विद्या को सफल कर दिखाओ, परोपकार करो, मत मतांतरों की अविद्या को मिटाओ, वेद के प्रकाश से इस अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करो, वैदिक धर्म का आलोक सर्वत्र विकीर्ण करो। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है। उन्होंने अंतिम शिक्षा दी—
मनुष्यकृत ग्रंथों में,
ईश्वर और ऋषियों की निंदा है,
ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं।
महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किए। वे कलकत्ता में बाबू केशवचन्द्र सेन तथा देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा हिन्दी में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था, मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।
महर्षि दयानन्द का समाज सुधार में व्यापक योगदान रहा। महर्षि दयानन्द ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों व पाखण्डों का खण्डन व विरोध किया। उनके ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, में समाज को आध्यात्म और आस्तिकता से परिचित कराया। वे योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। उनमें न केवल देशभक्ति की भावना दिखाई देती थी बल्कि वह तो 1857 के स्वतंत्रा संग्राम में भाग लेने वाले अग्रिम लोगो में थे।
महर्षि के साहित्य के साथ-साथ उनका जीवन चरित भी अत्यन्त परेरणास्पद है। महर्षि पर अनेकों व्यक्तियों ने जीवन चरित्र लिखा, जिनमें पण्डित लेखराम, सत्यानन्द आदि प्रमुख हैं। किन्तु बंगाली सज्जन बाबू श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के द्वारा लिखे गए ऋषि दयानन्द का जीवनचरित की यह विशेषता है कि देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी स्वयं आर्यसमाजी नहीं थे फिर भी अत्यन्त श्रद्धावान होकर उन्होनें 15-16 वर्ष लगातार और सहस्रों रुपया व्यय करके ऋषि जीवन की सामग्री को एकत्र करके उन्होने महर्षि की प्रामाणिक और क्रमबद्ध जीवनी को लिखा। इस जीवनी के लेखन का कार्य दैवयोग से पूर्ण नहीं हो पाया तथा देवेन्द्रनाथ जी की असामायिक मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् पं. लेखराम और सत्यानन्द द्वारा संग्रहित सामग्री की सहायता से पं. घासीराम ने इसे पूर्ण किया। यह महर्षि की अत्यन्त प्रमाणिक जीवनी है।
पण्डित लेखराम का अनुसंधान विशेषकर पंजाब, यू.पी. और राजस्थान तक ही सीमित रहा। मुम्बई और बंगाल प्रान्त में न उन्होने अधिक भ्रमण किया और न अधिक अनुसन्धान किया, अत: इन दोनो प्रान्तों की घटनाओं का उनके ग्रन्थ में उतना विशद वर्णन नहीं है जितना पंजाब और यूपी तथा राजस्थान की घटनाओं का है। देवेन्द्रनाथ जी के ग्रन्थ में मुम्बई और बंगाल का भी विस्तृत वर्णन है।
स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में महापुरुषों के विचार
* श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' घोषणा की।
" फ्रेंच लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थे।
" अन्य फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था।
उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।
* स्वामी जी को लोकमान्य तिलक ने "स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्व्लयमान नक्षत्र थे दयानन्द "
* नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने "आधुनिक भारत का आद्यनिर्माता" माना।
" अमरीका की मदाम ब्लेवेट्स्की ने "आदि शंकराचार्य के बाद "बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक" माना।
* सैयद अहमद खां के शब्दों में "स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे।"
* वीर सावरकर ने कहा महर्षि दयानन्द संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे।
* लाला लाजपत राय ने कहा - स्वामी दयानन्द ने हमे स्वतंत्र विचारना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया।
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