प्रेमचंद लिखित कहानी (i) 'जादू'
जादू -
नीला- तुमने उसे क्यों लिखा?
मीना- किसको?
‘उसी को?’
‘मै नही समझती।’
‘खूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम मुँह लगाती हो, क्या यह उचित हैं?’
‘तुम गलत कहती हो!’
‘तुम उसे खत, नहीं लिखा?’
‘कभी नहीं।’
‘तो मेरी गलती क्षमा करो। तुम मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती।’
‘मैने किसी को खत नही लिखा।’
‘मुझे यह सुनकर खुशी हुई।’
‘तुम मुसकाती क्यो हो?’
‘मैं!’
‘जी हाँ, आप!’
‘मैं तो जरा भी नही मुसकरायी।’
‘क्या मैं अन्धी हूँ?’
‘यह तो तुम अपने मुँह से ही कहती हो।’
‘तुम क्यों मुसकरायीं?’
‘मै सच कहती हूँ, जरा भी नहीं मुसकायी।’
‘मैने अपनी आँखों से देखा।’
‘अब मैं कैसे तुम्हे विश्वास दिलाऊँ?’
‘तुम आँखों मे धूल झोंकती हो।’
‘अच्छा मुसकरायी! बस, या जान लोगी?’
‘तुम्हें किसी के ऊपर मुसकराने का क्या अधिकार हैं?’
‘तेरे पैरों पड़ती हूँ, नीला, मेरा गला छोड़ दे। मैं बिलकुल नहीं मुसकरायी।’
‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूँ ।’
‘यह मैं जानती हूँ।’
‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा हैं।’
‘तू आज किसका मुँह देखकर उठी हैं?’
‘तुम्हारा।’
‘तू मुझे थोड़ा संखिया क्यों नहीं दे देती।’
‘हाँ, मैं तो हत्यारिन हूँ।’
‘मैं तो नहीं कहती।’
‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारिन हूँ, मदमाती हूँ, दीदा-दिलेर हूँ ; तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो। अब खुश हुई?’
‘लो कहती हूँ, मैने उन्हें पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? तुम कौन होती हो, मुझसे जवाब-तलब करने वाली?’
‘अच्छा किया, लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफी थी कि मैने तुमसे पूछा।’
‘हमारी खुशी, हम जिसको चाहेंगे खत लिखेंगे। जिससे चाहेंगे बोलेंगे। तुम कौन होती हो रोकने वाली । तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती; हालाँकि रोज तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूँ।’
‘जब तुमने शर्म ही भून खायी, तो जो चाहो करो, अख्तियार हैं।’
‘और अब तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गयीं? सोचती होगी, अम्माँ से कह दूँगी, यहाँ इसकी परवाह नहीं हैं। मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी। बातचीत भी की, जाकर अम्माँ से, दादा से और सारे मुहल्ले से कह दो।’
‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊँ?’
‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नही कहती, अंगूर खट्टे हैं?’
‘जो तुम कहो, वही ठीक हैं।’
‘दिल में जली जाती हो।’
‘मेरी बला जले!’
रो दो ज़रा.’’
‘‘तुम ख़ुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए.’’
‘‘उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊं?’’
‘‘मुबारक़! मेरी आंखों का सनीचर दूर होगा.’’
‘‘मैं कहती हूं, तुम इतनी जलती क्यों हो?’’
‘‘अगर मैं तुमसे जलती हूं तो मेरी आंखें पट्टम हो जाएं.’’
‘‘तुम जितना जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी.’’
‘‘मैं जलूंगी ही नहीं.’’
‘‘जल रही हो साफ़’’
‘‘कब संदेशा आएगा?’’
‘‘जल मरो.’’
‘‘पहले तेरी भांवरें देख लूं.’’
‘‘भांवरों की चाट तुम्हीं को रहती है.’’
‘‘तो क्या बिना भांवरों का ब्याह होगा?’’
‘‘ये ढकोसले तुम्हें मुबारक़. मेरे लिए प्रेम काफ़ी है.’’
‘‘तो क्या तू सचमुच...’’
‘‘मैं किसी से नहीं डरती.’’
‘‘यहां तक नौबत पहुंच गई! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा!’’
‘‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊं?’’
‘‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली.’’
‘‘तुम मुस्कराई क्यों?’’
‘‘इसलिए कि यह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा. और फिर तुम मेरी तरह रोओगी.’’
‘‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?’’
‘‘मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता और कहता कि मैं मर जाऊंगा, ज़हर खा लूंगा.’’
‘‘सच कहती हो?’’
‘‘बिल्कुल सच.’’
‘‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं.’’
‘‘सच?’’
‘‘तुम्हारे सिर की कसम.’’
‘‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है.’’
‘‘क्या वह सचमुच.’’
‘‘पक्का शिकारी है.’’
मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब गई.
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