बड़े घर की बेटी
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गांव के जमींदार और नंबर दार थे। उनके पिता महा किसी समय बड़ी धन धान्य संपन्न थे। गांव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्तिस्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैस थी, जिसके शरीर में अस्थिपंजर के सिवा और कुछ शेष न था; पर दूध शायद बहुत देती थी। क्योंकि एक ना एक आदमी हार्डी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनी माधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चूके थे।
बेनी माधव उनकी वर्तमान आई ₹1000 वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उनसे बहुत दिनों के परिश्रम और लगन के बाद बीए की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का संजीला जवान था। भरा हुआ मुख और चौड़ी छाती। बहस का दो सेर ताजा दूध वह उठकर सवेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्र प्रिय गुणों को उन्होंने बीए–इन्ही दो अक्षर पर निछावर कर दिया था।
इससे वैदिक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधि पर उनका अधिक विश्वास था। शाम सवेरे उनकी कमरे से प्राय: खलल की सुरीली कर्णमधु ध्वनी सुनाई दिया करती थी लाहौर और कलकत् एके वैद्य से बड़ी लिखा पड़ी रहती थी।
श्रीकंठ इस अंग्रेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अंग्रेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुदा बड़े ज़ोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गांवों में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एकमात्र उपासक थे।
आजकल स्ट्रोकों कुटुम्ब में मिल जुलकर रहने की जो अरुचि होती थी, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गांव की ललनाएं उनकी निंदक थी! कोई कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थी! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने साथ ससुर, देवर और जेठ आदि से घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाहन न हो सके, तो आए दिन की कला से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकाई जाए।
आनन्दी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी सी रियासत के तालुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी शिकारे, झाड़ फानूस, होनरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित तालुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहाँ विद्यमान थे। नाम था भूप सिंह। बड़े उदार चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियां हुई और देवताओं की कृपा से सबकी सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किए; पर 15 ₹20,000 का कर्जा सिर पर हो गया, तो आंखें खुलीं, हाथ समेत लिए। आनन्दी चौथी लड़की थी।
वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवान थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुंदर संतान को कदाचित उसके माता पिता भी अधिक चाहते हैं। धर्म संकट में थे कि इस का विवाह कहाँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़ें और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। 1 दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मांगने गए थे। शायद नागरिक प्रचार का चंदा था। ही उनके स्वभाव पर रिज गए और धूम धाम से श्रीकंठ सिंह का आनन्दी के साथ विवाह हो गया।
आनन्दी अपने नए घर में आई, तो यहाँ का रंग ढंग कुछ और ही देखा। जिससे टीम टॉम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी थी, वह यहाँ नाम मात्र को भी न थी। हाथी घोडा का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बबली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थीं; पर यह बाग कहा। मकान में खिड़कियां तक न थी, नाजमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा साधा देहाती गृहस्थी का मकान था; किंतु आनन्दी ने थोड़ी ही दिनों में अपने को इस नई अवस्था के ऐसे अनुकूल बना लिया, मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।
एक दिन दोपहर के समय लाल बिहारी सिंह दो चिड़िया लिए हुए आया और भाभी से बोला-जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठे। हांडी में देखा, तो घी पाव भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब् घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल घी न था, बोला दाल मे घी क्यों नहीं छोड़ा?
आनन्दी ने कहा-घी मास में पड़ गया। लालबिहारी ज़ोर से बोला-अभी परसों घी आया था। इतना जल्द उठ गया?
आनन्दी ने उत्तर दिया-आज तो कुल पाओ-भर रहा होगा। वह सब मैने मास में डाल दिया।
जिसतरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल्दी उठती है, उसी तरह भूख से बावला मनुष्य ज़रा ज़रा सी बात पर तिनक जाता है। लाल बिहारी को भाभी कि यह लापरवाही बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक बोला-मायके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!
स्त्री गालियां सह सकती है, मार भी सह सकती है; पर मायके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँह फेरकर बोली-हाथी मरा भी, तो 9,00,000 का। वहाँ इतना घी हर दिन कहार खा जाते हैं।
लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पटक दी, और बोला-जी चाहता है, पकड़कर खींच लूँ।
आनन्दी को भी क्रोध आया। मुँह लाल हो गया बोली-वह होते तो आज इसका मज़ा चखाते।
अब अनपढ़ ठाकुर से ना रह गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता था, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। चप्पल उठाकर आनन्दी की ओर ज़ोर से फेंकी, और बोला-जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूंगा और तुम्हें भी।
आनन्दी ने हाथ से चप्पल रोकी, सिर बच गया; पर उँगली में बड़ी चोट आई। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भांति काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। तरीक बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषार्थ का घमंड होता है। आनन्दी खून का घूंट पीकर रह गई।
श्रीखंड सिंह शनिवार को घर आया करते थे। गुरुवार को यह घटना हुई थी। 2 दिन तक आनन्दी को भवन में रही। न कुछ खाया न कुछ पिया, उनका रास्ता देखती रही। अंत में शनिवार को यह नियमानुकूल संध्या समय घर आए और बाहर बैठकर कुछ इधर उधर की बातें, कुछ देशकाल संबंधी समाचार तथा कुछ नए मुकदमे और आदि की चर्चा करते रहे। यह वार्तालाप 10:00 बजे रात तक होता रहा। गांव के भद्र पुरुषों को इस बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने पीने की भी सुध न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था।
ये दो 3 घंटे आनन्दी ने बड़े कष्ट से काटे! किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लाल बिहारी ने कहा-भैया, आप ज़रा भाभी को समझा दीजिए कई ज़रा मुँह संभालकर बातचीत किया करें, नहीं तो 1 दिन अनर्थ हो जाएगा।
बेनी माधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी-हाँ, बहु बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों से मुँह लगे।
लालबिहारी-वह बड़े घर की बेटी है, तो हम भी कोई कुर्मी कहार नहीं है। श्रीकंठ ने चिंतित स्वर मेँ पूछा-आखिर बात क्या हुई?
लाल बिहारी ने कहा-कुछ भी नहीं; यूही आप ही आप उलझ पड़ीं। मायके के सामने हम लोगो को कुछ समझती ही नहीं।
श्रीकंठ खा पीकर आनन्दी के पास गए। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनन्दी ने पूछा-चित तो प्रसन्न है।
श्रीकंठ बोले-बहुत प्रसन्न हैं; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?
आनन्दी को क्रोध आया, झुंझलाहट के मारे बदन में ज्वाला उठी। बोली-जिसने तुमसे यह आग लगाई है, वो मिले तो उसका मुँह झुलसा दो।
श्रीकंठ-इतनी गर्मी क्यूँ होती हो, बात तो कहो।
आनन्दी-क्या कहूं, यह मेरे भाग्य का फेर है! नहीं तो गवार छोकरा, जिसकों चपरासी गिरी करने का भी सहूर नहीं, मुझे चप्पल से मार कर यू न अकड़ता।
श्रीकांत-सब हाल साफ साफ कहो, तो मालूम हो-मुझे तो कुछ पता नहीं।
आनन्दी-परसों तुम्हारे लाडले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हांडी में पावभर से अधिक न था। वह सब मैने मास में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा-दाल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मायके को बुरा भला कहने लगा-मुझसे रहा न गया। मैने कहा कि वह इतना कि तो नौकर खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी तो सी बात पर इस अन्याय ने मुझ पर चप्पल फेंक मारी। यदि हाथ से न रोका होता तो सिर फट जाता। उसी से पूछो, मैने जो कुछ कहा, वह सच है या झूठ।
श्रीकंठ की आँखें लाल हो गईं। बोले-यहाँ तक हो गया, इस छोटे का यह साहस! आनन्दी स्त्रियों किस स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि आंसू उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकांत बड़े धैर्यवान और शांति पुरुष थे। उन्हें कदाचित ये कभी क्रोध आता था। स्त्रियों के आंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम करते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकीं। प्रातःकाल अपने बाप के पास जाकर बोले-दादा, अब इस घर में मेरा निभा ना होगा।
इस तरह की विद्रोह पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परंतु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!
बेनी माधव सिंह घबरा उठे और बोले-क्यूँ?
श्रीकंठ-इसलिए कि मुझे भी अपनी मान प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय का और हट का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं। यहाँ मेरे पीछे औरतों पर चप्पल और जूतों की बौछार होती है। इस बात की चिंता नहीं। कोई एक की दो कह लें, वहाँ तक मैं सह सकता हूँ किंतु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात घुसे पड़े और मैं दम न मारो।
बेनी माधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उसके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर आवक रह गया। केवल इतना ही बोला-बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? आरती इस तरह घर का नाश कर देती है। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।
श्रीकंठ-इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने बुझाने से, इसी गांव में कई घर संभल गए, पर जिस स्त्री की मान प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत व्यवहार मुझे असहाय है। आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लाल बिहारी को कुछ दंड नहीं होता।
अब बेनी माधव सिंह भी गर्माए। ऐसी बातें और न सुन सकें। बोले-लालबिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल चूक हो, उसके कान पकडो लेकिन
श्रीकंठ-लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।
बेनी माधव सिंह-स्त्री के पीछे?
श्रीकंठ-जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।
दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़की का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लाल बिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गांव के कोई सज्जन उप के चिलम के बहाने वहाँ आप बैठे। कई औरतों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने को तैयार है, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणी सुनने के लिए उनकी आत्मा तिलमिलाने लगी। गांव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कूल की नीती पूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। कहा करते थे-श्रीकंठ अपने बाप से डरता है, इसलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पड़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है।
बेनी माधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाएं आज पूरी होती दिखाई दी। कोई उसका पीने के बहाने और कोई लगान की रसीदें दिखाने आकर बैठ गया। बेनी माधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गए। उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों ना हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूंगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले-बेटा, मैं तुम से बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो चीज़ चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया।
इलाहाबाद का अनुभव रहित झल्लाया हुआ ग्रैजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग क्लब में अपनी बात करने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जीस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ न आया। बोला-लालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।
बेनी माधव-बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो।
श्रीकंठ-उनकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता। या तो वहीं घर में रहेगा, या मै ही। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप संभालूंगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहाँ चाहें चला जाए। बस यह मेरा अंतिम निश्चय है।
लालबिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस नहीं हुआ कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाएं, हुक्का पीले या पान खा लें। बाप का भी वह इतना मान करता था। श्रीकंठ का भी उसपर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे कुछ नहीं कहा। जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते। मुग्दल की जोडी उन्होंने ही बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से बड़े जवान को नाग पंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाडे में ही जाकर उसे गले लगा लिया था, ₹5 के पैसे लुटाए थे।
ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय विदारक बात सुनकर लाल बिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट फूटकर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं था कि अपने किए पर पछता रहा था। भाई के आने से 1 दिन पहले से उसकी छाती धड़की थी की देखो भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊंगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी आँखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वो मूर्ख था। परन्तु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं।
यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित उसे इतना दुख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सह ना गया। वह रोता हुआ घर आया। कोठरी में जाकर कपड़े पहने, आँखें पोंछीं, जिसमें कोई यह न समझे की रोता था। तब आनन्दी के द्वार पर आकर बोला-भाभी, भैया ने निश्चय किया है की यह मेरे साथ इस घर में रहेंगे। वह अब मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊंगा। मुझसे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करना। यह कहते कहते लालबिहारी का गला भर आया।
जिससमय लालबिहारी सिर चुका है आनन्दी के द्वार पर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ भी आंखें लाल किए बाहर से आए। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से आँखें फेर ली, और कतरा कर निकल गए। मानो उसकी परछाई से दूर भागते हैं।
आनन्दी ने लाल बिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था की बात इतनी बढ़ जाएगी। वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी कि यह इतने गर्म क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो मैं क्या करुँगी। इस बीच में जब उसने लाल बिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहता सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करना, तो उसका बचा हुआ क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन के मैल धोने के लिए आंसू से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।
श्रीकंठ को देखकर आनन्दी ने कहा-लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ-तो मैं क्या करूँ?
आनन्दी-पछताओगे। उन्हें बहुत गिलानी हो गई है, ऐसा न हो, कहीं चल दे।
श्रीकंठ ना उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा-भाभी, भैया मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह न दिखाऊंगा।
लालबिहारी इतना कहकर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनन्दी कमरे से निकली और हाथ पकड़ लिया।
लाल बिहारी ने पीछे फिरकर देखा और आँखों में आंसू भरे बोला-मुझे जाने दो।
आनन्दी-कहाँ जाते हो?
लालबिहारी-जहाँ कोई मेरा चेहरा ना देखें।
आनन्दी-मैं ना जाने दूंगी।
लालबिहारी-मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
आनन्दी-तुम्हें मेरी स्वागत अब एक पद भी आगे न बढ़ाना।
लालबिहारी-जब तक मुझे यह नाम मालूम हो जाए कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापी न रहूंगा।
आनन्दी-मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मेल नहीं।
अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लाल बिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट फूटकर रोए। लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा-भैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूंगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा।
श्रीकंठ ने काँपते हुए स्वर में कहा-लल्लू! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर ना आएगा।
वेणी माधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गए। बोल उठे-बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती है। बिगडता हुआ काम बना लेती है।
गांव में जिसने यह वृतांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनन्दी की उदारता को सराहा-‘बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती है।‘
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