Monday, 31 July 2023

बड़े घर की बेटी

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गांव के जमींदार और नंबर दार थे। उनके पिता महा किसी समय बड़ी धन धान्य संपन्न थे। गांव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्तिस्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैस थी, जिसके शरीर में अस्थिपंजर के सिवा और कुछ शेष न था; पर दूध शायद बहुत देती थी। क्योंकि एक ना एक आदमी हार्डी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनी माधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चूके थे।
बेनी माधव उनकी वर्तमान आई ₹1000 वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उनसे बहुत दिनों के परिश्रम और लगन के बाद बीए की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का संजीला जवान था। भरा हुआ मुख और चौड़ी छाती। बहस का दो सेर ताजा दूध वह उठकर सवेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्र प्रिय गुणों को उन्होंने बीए–इन्ही दो अक्षर पर निछावर कर दिया था।

इससे वैदिक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधि पर उनका अधिक विश्वास था। शाम सवेरे उनकी कमरे से प्राय: खलल की सुरीली कर्णमधु ध्वनी सुनाई दिया करती थी लाहौर और कलकत् एके वैद्य से बड़ी लिखा पड़ी रहती थी।

श्रीकंठ इस अंग्रेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अंग्रेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुदा बड़े ज़ोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गांवों में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एकमात्र उपासक थे।

आजकल स्ट्रोकों कुटुम्ब में मिल जुलकर रहने की जो अरुचि होती थी, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गांव की ललनाएं उनकी निंदक थी! कोई कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थी! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने साथ ससुर, देवर और जेठ आदि से घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाहन न हो सके, तो आए दिन की कला से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकाई जाए।

आनन्दी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी सी रियासत के तालुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी शिकारे, झाड़ फानूस, होनरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित तालुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहाँ विद्यमान थे। नाम था भूप सिंह। बड़े उदार चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियां हुई और देवताओं की कृपा से सबकी सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किए; पर 15 ₹20,000 का कर्जा सिर पर हो गया, तो आंखें खुलीं, हाथ समेत लिए। आनन्दी चौथी लड़की थी।

वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवान थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुंदर संतान को कदाचित उसके माता पिता भी अधिक चाहते हैं। धर्म संकट में थे कि इस का विवाह कहाँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़ें और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। 1 दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मांगने गए थे। शायद नागरिक प्रचार का चंदा था। ही उनके स्वभाव पर रिज गए और धूम धाम से श्रीकंठ सिंह का आनन्दी के साथ विवाह हो गया।

आनन्दी अपने नए घर में आई, तो यहाँ का रंग ढंग कुछ और ही देखा। जिससे टीम टॉम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी थी, वह यहाँ नाम मात्र को भी न थी। हाथी घोडा का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बबली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थीं; पर यह बाग कहा। मकान में खिड़कियां तक न थी, नाजमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा साधा देहाती गृहस्थी का मकान था; किंतु आनन्दी ने थोड़ी ही दिनों में अपने को इस नई अवस्था के ऐसे अनुकूल बना लिया, मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

एक दिन दोपहर के समय लाल बिहारी सिंह दो चिड़िया लिए हुए आया और भाभी से बोला-जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठे। हांडी में देखा, तो घी पाव भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब् घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल घी न था, बोला दाल मे घी क्यों नहीं छोड़ा?

आनन्दी ने कहा-घी मास में पड़ गया। लालबिहारी ज़ोर से बोला-अभी परसों घी आया था। इतना जल्द उठ गया?

आनन्दी ने उत्तर दिया-आज तो कुल पाओ-भर रहा होगा। वह सब मैने मास में डाल दिया।

जिसतरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल्दी उठती है, उसी तरह भूख से बावला मनुष्य ज़रा ज़रा सी बात पर तिनक जाता है। लाल बिहारी को भाभी कि यह लापरवाही बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक बोला-मायके में तो चाहे घी की नदी बहती हो!

स्त्री गालियां सह सकती है, मार भी सह सकती है; पर मायके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँह फेरकर बोली-हाथी मरा भी, तो 9,00,000 का। वहाँ इतना घी हर दिन कहार खा जाते हैं।

लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पटक दी, और बोला-जी चाहता है, पकड़कर खींच लूँ।

आनन्दी को भी क्रोध आया। मुँह लाल हो गया बोली-वह होते तो आज इसका मज़ा चखाते।

अब अनपढ़ ठाकुर से ना रह गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता था, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। चप्पल उठाकर आनन्दी की ओर ज़ोर से फेंकी, और बोला-जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूंगा और तुम्हें भी।

आनन्दी ने हाथ से चप्पल रोकी, सिर बच गया; पर उँगली में बड़ी चोट आई। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भांति काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। तरीक बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषार्थ का घमंड होता है। आनन्दी खून का घूंट पीकर रह गई।

श्रीखंड सिंह शनिवार को घर आया करते थे। गुरुवार को यह घटना हुई थी। 2 दिन तक आनन्दी को भवन में रही। न कुछ खाया न कुछ पिया, उनका रास्ता देखती रही। अंत में शनिवार को यह नियमानुकूल संध्या समय घर आए और बाहर बैठकर कुछ इधर उधर की बातें, कुछ देशकाल संबंधी समाचार तथा कुछ नए मुकदमे और आदि की चर्चा करते रहे। यह वार्तालाप 10:00 बजे रात तक होता रहा। गांव के भद्र पुरुषों को इस बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने पीने की भी सुध न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था।

ये दो 3 घंटे आनन्दी ने बड़े कष्ट से काटे! किसी तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लाल बिहारी ने कहा-भैया, आप ज़रा भाभी को समझा दीजिए कई ज़रा मुँह संभालकर बातचीत किया करें, नहीं तो 1 दिन अनर्थ हो जाएगा।

बेनी माधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी-हाँ, बहु बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि मर्दों से मुँह लगे।

लालबिहारी-वह बड़े घर की बेटी है, तो हम भी कोई कुर्मी कहार नहीं है। श्रीकंठ ने चिंतित स्वर मेँ पूछा-आखिर बात क्या हुई?

लाल बिहारी ने कहा-कुछ भी नहीं; यूही आप ही आप उलझ पड़ीं। मायके के सामने हम लोगो को कुछ समझती ही नहीं।

श्रीकंठ खा पीकर आनन्दी के पास गए। वह भरी बैठी थी। यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनन्दी ने पूछा-चित तो प्रसन्न है।

श्रीकंठ बोले-बहुत प्रसन्न हैं; पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?

आनन्दी को क्रोध आया, झुंझलाहट के मारे बदन में ज्वाला उठी। बोली-जिसने तुमसे यह आग लगाई है, वो मिले तो उसका मुँह झुलसा दो।

श्रीकंठ-इतनी गर्मी क्यूँ होती हो, बात तो कहो।

आनन्दी-क्या कहूं, यह मेरे भाग्य का फेर है! नहीं तो गवार छोकरा, जिसकों चपरासी गिरी करने का भी सहूर नहीं, मुझे चप्पल से मार कर यू न अकड़ता।

श्रीकांत-सब हाल साफ साफ कहो, तो मालूम हो-मुझे तो कुछ पता नहीं।

आनन्दी-परसों तुम्हारे लाडले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हांडी में पावभर से अधिक न था। वह सब मैने मास में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा-दाल में घी क्यों नहीं है? बस, इसी पर मेरे मायके को बुरा भला कहने लगा-मुझसे रहा न गया। मैने कहा कि वह इतना कि तो नौकर खा जाते हैं, और किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस इतनी तो सी बात पर इस अन्याय ने मुझ पर चप्पल फेंक मारी। यदि हाथ से न रोका होता तो सिर फट जाता। उसी से पूछो, मैने जो कुछ कहा, वह सच है या झूठ।

श्रीकंठ की आँखें लाल हो गईं। बोले-यहाँ तक हो गया, इस छोटे का यह साहस! आनन्दी स्त्रियों किस स्वभावानुसार रोने लगी; क्योंकि आंसू उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकांत बड़े धैर्यवान और शांति पुरुष थे। उन्हें कदाचित ये कभी क्रोध आता था। स्त्रियों के आंसू पुरुष की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम करते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकीं। प्रातःकाल अपने बाप के पास जाकर बोले-दादा, अब इस घर में मेरा निभा ना होगा।

इस तरह की विद्रोह पूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था; परंतु दुर्भाग्य, आज उन्हें स्वयं वे ही बातें अपने मुँह से कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है!

बेनी माधव सिंह घबरा उठे और बोले-क्यूँ?

श्रीकंठ-इसलिए कि मुझे भी अपनी मान प्रतिष्ठा का कुछ विचार है। आपके घर में अब अन्याय का और हट का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर सम्मान करना चाहिए, वे उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरे का नौकर ठहरा घर पर रहता नहीं। यहाँ मेरे पीछे औरतों पर चप्पल और जूतों की बौछार होती है। इस बात की चिंता नहीं। कोई एक की दो कह लें, वहाँ तक मैं सह सकता हूँ किंतु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात घुसे पड़े और मैं दम न मारो।

बेनी माधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उसके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर आवक रह गया। केवल इतना ही बोला-बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो? आरती इस तरह घर का नाश कर देती है। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।

श्रीकंठ-इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने बुझाने से, इसी गांव में कई घर संभल गए, पर जिस स्त्री की मान प्रतिष्ठा का ईश्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ, उसके प्रति ऐसा घोर अन्याय और पशुवत व्यवहार मुझे असहाय है। आप सच मानिए, मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लाल बिहारी को कुछ दंड नहीं होता।

अब बेनी माधव सिंह भी गर्माए। ऐसी बातें और न सुन सकें। बोले-लालबिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल चूक हो, उसके कान पकडो लेकिन

श्रीकंठ-लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।

बेनी माधव सिंह-स्त्री के पीछे?

श्रीकंठ-जी नहीं, उसकी क्रूरता और अविवेक के कारण।

दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़की का क्रोध शांत करना चाहते थे, लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लाल बिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गांव के कोई सज्जन उप के चिलम के बहाने वहाँ आप बैठे। कई औरतों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने को तैयार है, तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणी सुनने के लिए उनकी आत्मा तिलमिलाने लगी। गांव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे, जो इस कूल की नीती पूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे। कहा करते थे-श्रीकंठ अपने बाप से डरता है, इसलिए वह दब्बू है। उसने विद्या पड़ी, इसलिए वह किताबों का कीड़ा है।

बेनी माधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाएं आज पूरी होती दिखाई दी। कोई उसका पीने के बहाने और कोई लगान की रसीदें दिखाने आकर बैठ गया। बेनी माधव सिंह पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड़ गए। उन्होंने निश्चय किया चाहे कुछ ही क्यों ना हो, इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूंगा। तुरंत कोमल शब्दों में बोले-बेटा, मैं तुम से बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो चीज़ चाहे करो, अब तो लड़के से अपराध हो गया।

इलाहाबाद का अनुभव रहित झल्लाया हुआ ग्रैजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग क्लब में अपनी बात करने की आदत थी, इन हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने जीस मतलब से बात पलटी थी, वह उसकी समझ न आया। बोला-लालबिहारी के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।

बेनी माधव-बेटा, बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ है। उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बड़े होकर क्षमा करो।

श्रीकंठ-उनकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता। या तो वहीं घर में रहेगा, या मै ही। आपको यदि वह अधिक प्यारा है, तो मुझे विदा कीजिए, मैं अपना भार आप संभालूंगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं तो उससे कहिए, जहाँ चाहें चला जाए। बस यह मेरा अंतिम निश्चय है।

लालबिहारी सिंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस नहीं हुआ कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाएं, हुक्का पीले या पान खा लें। बाप का भी वह इतना मान करता था। श्रीकंठ का भी उसपर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे कुछ नहीं कहा। जब वह इलाहाबाद से आते, तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते। मुग्दल की जोडी उन्होंने ही बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से बड़े जवान को नाग पंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया, तो उन्होंने पुलकित होकर अखाडे में ही जाकर उसे गले लगा लिया था, ₹5 के पैसे लुटाए थे।

ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय विदारक बात सुनकर लाल बिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट फूटकर रोने लगा। इसमें संदेह नहीं था कि अपने किए पर पछता रहा था। भाई के आने से 1 दिन पहले से उसकी छाती धड़की थी की देखो भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊंगा, उनसे कैसे बोलूँगा, मेरी आँखें उनके सामने कैसे उठेगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया। वो मूर्ख था। परन्तु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं।

यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो चार बातें कह देते; इतना ही नहीं दो चार तमाचे भी लगा देते तो कदाचित उसे इतना दुख न होता; पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता, लालबिहारी से सह ना गया। वह रोता हुआ घर आया। कोठरी में जाकर कपड़े पहने, आँखें पोंछीं, जिसमें कोई यह न समझे की रोता था। तब आनन्दी के द्वार पर आकर बोला-भाभी, भैया ने निश्चय किया है की यह मेरे साथ इस घर में रहेंगे। वह अब मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊंगा। मुझसे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करना। यह कहते कहते लालबिहारी का गला भर आया।

जिससमय लालबिहारी सिर चुका है आनन्दी के द्वार पर खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ भी आंखें लाल किए बाहर से आए। भाई को खड़ा देखा, तो घृणा से आँखें फेर ली, और कतरा कर निकल गए। मानो उसकी परछाई से दूर भागते हैं।

आनन्दी ने लाल बिहारी की शिकायत तो की थी, लेकिन अब मन में पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था की बात इतनी बढ़ जाएगी। वह मन में अपने पति पर झुंझला रही थी कि यह इतने गर्म क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें, तो मैं क्या करुँगी। इस बीच में जब उसने लाल बिहारी को दरवाजे पर खड़े यह कहता सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करना, तो उसका बचा हुआ क्रोध भी पानी हो गया। वह रोने लगी। मन के मैल धोने के लिए आंसू से उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।

श्रीकंठ को देखकर आनन्दी ने कहा-लाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।

श्रीकंठ-तो मैं क्या करूँ?

आनन्दी-पछताओगे। उन्हें बहुत गिलानी हो गई है, ऐसा न हो, कहीं चल दे।

श्रीकंठ ना उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा-भाभी, भैया मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते; इसलिए मैं भी अपना मुँह न दिखाऊंगा।

लालबिहारी इतना कहकर लौट पड़ा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर बढ़ा। अंत में आनन्दी कमरे से निकली और हाथ पकड़ लिया।

लाल बिहारी ने पीछे फिरकर देखा और आँखों में आंसू भरे बोला-मुझे जाने दो।

आनन्दी-कहाँ जाते हो?

लालबिहारी-जहाँ कोई मेरा चेहरा ना देखें।

आनन्दी-मैं ना जाने दूंगी।

लालबिहारी-मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।

आनन्दी-तुम्हें मेरी स्वागत अब एक पद भी आगे न बढ़ाना।

लालबिहारी-जब तक मुझे यह नाम मालूम हो जाए कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापी न रहूंगा।

आनन्दी-मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मेल नहीं।

अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लाल बिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट फूटकर रोए। लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा-भैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूंगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा।

श्रीकंठ ने काँपते हुए स्वर में कहा-लल्लू! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर ना आएगा।

वेणी माधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गए। बोल उठे-बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती है। बिगडता हुआ काम बना लेती है।

गांव में जिसने यह वृतांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनन्दी की उदारता को सराहा-‘बड़े घर की बेटियां ऐसी ही होती है।‘


Sunday, 30 July 2023

मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष

𝑨𝒓𝒕𝒊𝒄𝒍𝒆 𝒃𝒚 : 
𝑹𝒂𝒎 𝑩𝒉𝒂𝒅𝒓𝒂 
(𝑫𝑰𝑹𝑬𝑪𝑻𝑶𝑹)
𝑮𝒚𝒂𝒏 𝑩𝒉𝒂𝒓𝒕𝒊 𝑷𝒖𝒃𝒍𝒊𝒄 𝑺𝒄𝒉𝒐𝒐𝒍
𝑴𝒐𝒓𝒔𝒂𝒏𝒅, 𝑹𝒖𝒏𝒏𝒊𝒔𝒂𝒊𝒅𝒑𝒖𝒓, 𝑺𝒊𝒕𝒂𝒏𝒂𝒅𝒉𝒊

मुंशी प्रेमचंद जब भी हिंदी साहित्यकारों में लेखकों का नाम आता है तो उनमें मुंशी प्रेमचंद जी का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। दुनिया इन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ के नाम से भी जानती है। प्रेमचंद जी को हिंदी और उर्दू साहित्य का सबसे प्रसिद्ध लेखक माना जाता है। आसमान में जो स्थान ध्रुव तारे का है, वही स्थान हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद जी का है।
जन्म –
इनका जन्म 31 जुलाई 1880 उत्तर प्रदेश राज्य के बनारस जिले में स्थित लमही गांव में हुआ था। दुनिया जिन्हें मुंशी प्रेमचंद के नाम से जानती है ये उनका असली नाम नहीं था उनका असली नाम धनपत राय था। मगर लिखना शुरू करते समय इन्होंने अपना नाम ‘नवाब राय’ रखा लेकिन बाद में नाम बदलकर प्रेमचंद रखना पड़ा इसके पीछे कारण क्या था ये आपको आगे इसी लेख में  मिल जायेगा।

मुंशी प्रेमचंद:जीवन और संघर्ष
मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन हमेशा अभावहीन स्थिति में व आर्थिक तंगी में ही गुज़रा। जब यह 7 वर्ष के थे तभी इन्होंने उर्दू और हिंदी की शिक्षा ग्रहण कर ली थी और जब ये 8 वर्ष के हुए तो इनकी माता चल बसीं, कुछ समय बाद इनकी दादी का भी देहांत हो गया।

इनकी एक बड़ी बहन भी थी जिनकी शादी हो चुकी थी तथा इनके पिता ने घर की देखभाल के लिए दूसरी शादी भी कर ली थी मगर इन्हें सौतेली मां से उतना प्रेम नहीं मिला जिस वजह से वह अकेला अनुभव महसूस करने लगे |

अकेलेपन में रहने की वजह से इन्हें घर बैठे किताबें पढ़ने की आदत हो गई और इन्होंने उर्दू, फारसी,अंग्रेजी साहित्य की कई किताबें पढ़ डालीं। जब ये हाई स्कूल में थे तो इनकी तबीयत बहुत बिगड़ गई थी जिस वजह से यह सेकंड डिविजन में पास हुए।

मुंशी प्रेमचंद: जीवन और संघर्ष
मुंशी प्रेमचंद जी के मन में अपनी पढ़ाई पूरी करने की प्रबल इच्छा थी, मगर गरीबी व विषम परिस्थितियों के कारण उनकी पढ़ाई रुक गई।
आर्थिक स्थिति से बाहर निकलने के लिए इन्होंने एक वकील के घर में उसके बेटे को ट्यूशन पढ़ाने की नौकरी कर ली जिसके लिए उन्हें महीने के 5 रूपए मिलते थे।

उस समय में छोटी उम्र में शादी हो जाया करती थी तो इनके पिताजी ने इनका विवाह एक अमीर घराने की महिला से किया, उनकी पत्नी उनसे बहुत झगड़ा करती थीं तथा सही तालमेल न होने के कारण वह प्रेमचंद जी को छोड़कर अपने पिता के घर चले गई और प्रेमचंद जी उसे कभी मिलने भी नहीं गए।

विवाह के 1 साल बाद ही इनके पिताजी का देहांत हो गया और अचानक इनके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। इन्होंने शादी के फैसले पर अपने पिताजी के बारे में लिखा है कि “पिताजी ने जीवन के अंतिम वर्षों में ठोकर खाई वह स्वयं तो गिरे ही और साथ में मुझे भी डुबो दिया, मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दी।” हालांकि इनके पिताजी को बाद में इसका एहसास हुआ और इस बात पर काफी अफसोस भी किया।

प्रेमचंद जी अपनी आर्थिक स्थिति से हमेशा ही जूझते रहे, इनकी आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसों के अभाव में उन्हें अपना कोर्ट और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन तो ऐसी हालत हो गई कि वह अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुक सेलर के पास पहुंच गए, वहां इनकी मुलाकात मिशनरी स्कूल के हेड मास्टर से हुई। उन्होंने प्रेमचंद जी से अपने स्कूल में नौकरी करने का प्रस्ताव रखा जिसे इन्होंने स्वीकार कर लिया

इसी दौरान उन्होंने इंटरमीडिएट की शिक्षा भी पूरी की। इसके कुछ समय बाद इन्होंने सरकारी स्कूल में असिस्टेंट टीचर के रूप में नौकरी ज्वाइन कर ली। जब इनके जीवन में थोड़ी आर्थिक तंगी कम हुई तो इन्होंने एक विधवा स्त्री से विवाह कर लिया जिनका नाम शिवरानी देवी था और इनसे इनके दो पुत्र और एक पुत्री हुई।

प्रेमचंद जी ने लिखना तो वैसे 13 वर्ष की उम्र में ही शुरू कर दिया था लेकिन दूसरी शादी के बाद उनके जीवन में कुछ बदलाव आया, इनके लेखन में सजगता आई। नौकरी के दौरान प्रेमचंद जी ने अपना पहला लघु उपन्यास असरार–ए–माबेद लिखा जिसे हिंदी में देवस्थान रहस्य कहते हैं।

1905 में यह भारत की राजनीतिक स्थिति से बड़े प्रभावित हुए जिसका असर इनकी रचनाओं में भी दिखने लगा। उन्होंने अपनी पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन लिखी जिसके अनुसार दुनिया का सबसे अनमोल रत्न है ‘हमारे खून की आखिरी बूंद’ यह रचना देश की आजादी की प्रेरणा देती है।
इसके बाद इनकी लघु कहानी संग्रह की एक किताब सोजे वतन प्रकाशित हुई जिसके द्वारा यह देश के लोगों को आजादी के प्रति जागरूक करने की कोशिश कर रहे थे मगर यह किताब अंग्रेजों की नजर में आ गई और पुलिस ने उनके घर में छापा मार दिया जिसमें उन्होंने सोजे वतन की 500 प्रतिलिपियां जला डालीं।

इसके बाद अंग्रेजों ने इनके लिखने पर पाबंदी लगा दी और ये चेतावनी दी कि आगे से वे इस तरह की रचनाएं न लिखें। मगर प्रेमचंद जी लिखना कहां बंद कर सकते थे इसी वजह से उन्हें अपना नाम बदलकर नवाब राय से प्रेमचंद रखना पड़ा।

इसके बाद इनका पहला उपन्यास सेवासदन लोगों को बहुत पसंद आया और धीरे-धीरे प्रेमचंद जी प्रसिद्ध लेखक के रूप में माने जाने लगे। इस उपन्यास से इन्हें 700 मिले। शिक्षा पूरी करने की इच्छा इनमें पहले से ही थी इसलिए इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. की शिक्षा पूरी की।

मुंशी प्रेमचंद जीवन परिचय
सन् 1921 में उस समय महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन से यह काफी प्रभावित हुए। असहयोग आंदोलन जिसे हम NON CO-OPERATION MOVEMENT के नाम से भी जानते हैं, इसमें गांधी जी ने सभी लोगों से सरकारी नौकरी छोड़ने का निवेदन किया।

हालांकि इनकी आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी फिर भी इन्होंने कुछ वक्त सोच-विचार कर के सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और फिर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य जारी रखते रहे।

प्रेमचंद जी ने हमेशा सामाजिक परेशानियों और वास्तविक घटनाओं पर ही रचनाएं लिखी। 8 अक्टूबर सन् 1936 को एक लंबी बीमारी के चलते हिंदी साहित्य का अनमोल रत्न इस दुनिया को अलविदा कह गया। हिंदी साहित्य में अपने अमूल्य योगदान के लिए दुनिया इन्हें हमेशा याद करती रहेगी। बच्चो जब भी आप को मौका मिले तो आप इनकी कृतियों को जरूर पढ़िएगा। आपको आभास हो जाएगा कि क्यों इन्हें उपन्यास सम्राट कहा जाता है।

मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक परिचय :

बच्चे इनकी कृतियों के बारे में जाने
इन्होंने कुल 18 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 4 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख संपादकीय, भाषण, भूमिका और पत्र आदि की रचना की। मगर मैं आप सबके सामने उन्हीं कृतियों को प्रस्तुत कर रहा हूं जो बहुत लोकप्रिय है
मुंशी प्रेमचंद जी के प्रमुख उपन्यास गोदान, गबन, प्रेमाश्रय, सेवा सदन, रंगभूमि, कायाकल्प, निर्मला, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा, वरदान और मंगलसूत्र आदि हैं। इनमें से गोदान प्रेमचंद जी का सबसे अंतिम और महत्वपूर्ण उपन्यास है जो 1936 में प्रकाशित हुआ मुंशी प्रेमचंद जी के गोदान उपन्यास को हिंदी साहित्य में “ग्राम्य जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य” भी कहा जाता है |

मंगलसूत्र इनकी अपूर्ण रचना है। मगर कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है कि इस उपन्यास को इनकेc पुत्र अमृतराय द्वारा पूरा लिखा गया है।
प्रेमचंद

प्रेमचन्द ने अपने साहित्य के माध्यम से भारत के, दलित एवं उपेक्षित वर्गों का नेतृत्व करते हुए उनकी पीड़ा एवं विरोध को वाणी प्रदान की। उनकी रचनाओं का एक उद्देश्य होता था। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने न केवल सामाजिक बुराइयों के दुष्परिणामों की व्याख्या की, बल्कि उनके निवारण के उपाय भी बताए। उन्होंने बाल विवाह, बेमेल विवाह, विधवा विवाह, सामाजिक शोषण, अन्धविश्वास इत्यादि सामाजिक समस्याओं को अपनी कृतियों का विषय बनाया एवं उनमें यथासम्भव इनके समाधान भी प्रस्तुत किए। 'कर्मभूमि' नामक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने छुआछूत की गलत भावना एवं अछूत समझे जाने वाले लोगों के उद्धार का मार्ग बताया है।

उन्होंने लगभग अपनी सभी रचनाओं में धर्म के ठेकेदारों की पूरी आलोचना की है एवं समाज में व्याप्त बुराइयों के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हुए जनता को उनसे सावधान रहने का सन्देश दिया है। 'सेवासदन' नामक उपन्यास के माध्यम से उन्होंने नारी शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई है। अपनी कई रचनाओं में उन्होंने हिन्दू - मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर गहरा आघात किया एवं 'कर्बला' नामक नाटक के माध्यम से उनमें एकता व भाईचारा बढ़ाने का सार्थक प्रयास किया।

प्रेमचन्द का सामाजिक योगदान
अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेमचन्द ने न केवल 'कलम के सिपाही' के रूप में ब्रिटिश सरकार से लोहा लिया, बल्कि समाज सुधार के पुनीत कार्य को भी अंजाम दिया। प्रेमचन्द ने हिन्दी में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके उपन्यास 'गोदान' को यथार्थवादी उपन्यास की संज्ञा दी जाती है, क्योंकि इसके नायक होरी के माध्यम से उन्होंने समाज के यथार्थ को दर्शाया है। गाँव का निवासी होने के कारण उन्होंने किसानों के ऊपर हो रहे अत्याचारों को नज़दीक से देखा था, इसलिए उनकी रचनाओं में यथार्थ के दर्शन होते हैं। उनके पात्र साधारण मानव हैं, आम व्यक्ति हैं। ग्रामीण अंचल ही उनका कैनवास है। उन्होंने तत्कालीन समाज का चित्रण इतनी सच्चाई और ईमानदारी से किया है कि वह वास्तव में सजीव लगता है। प्रेमचन्द की तुलना मैक्सिम गोर्की, थॉमस हार्डी जैसे लेखकों से की जाती है। _
𝑨𝒓𝒕𝒊𝒄𝒍𝒆 𝒃𝒚 : 
𝑹𝒂𝒎 𝑩𝒉𝒂𝒅𝒓𝒂 
(𝑫𝑰𝑹𝑬𝑪𝑻𝑶𝑹)
𝑮𝒚𝒂𝒏 𝑩𝒉𝒂𝒓𝒕𝒊 𝑷𝒖𝒃𝒍𝒊𝒄 𝑺𝒄𝒉𝒐𝒐𝒍
𝑴𝒐𝒓𝒔𝒂𝒏𝒅, 𝑹𝒖𝒏𝒏𝒊𝒔𝒂𝒊𝒅𝒑𝒖𝒓, 𝑺𝒊𝒕𝒂𝒏𝒂𝒅𝒉𝒊

प्रेमचन्द जी के जीवन से जुड़े कुछ प्रश्न और उनके उत्तर
प्रश्न -- प्रेमचंद का जन्म कब हुआ था?
उत्तर -- प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को हुआ था।

प्रश्न -- प्रेमचंद का जन्म कहाँ हुआ था?
उत्तर -- प्रेमचंद जी का जन्म उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट लमही नामक ग्राम में हुआ था।
श्न -- प्रेमचंद की मृत्यु कब हुई थी?
उत्तर -- 8 अक्टूबर 1936 को।

प्रश्न -- प्रेमचंद के माता-पिता का नाम?
उत्तर -- प्रेमचंद के माता का नाम आनन्दी देवी और पिता का नाम अजायब राय था।

प्रश्न -- मुंशी प्रेमचंद के पुत्र का नाम क्या है?
उत्तर -- अमृत राय, श्रीपत राय।

प्रश्न -- मुंशी प्रेमचंद का पूरा नाम क्या है?
उत्तर -- प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।

प्रश्न -- मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख कृतियाँ?
उत्तर -- गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, गबन, सेवासदन, निर्मला।

प्रश्न -- प्रेमचंद का पहला उपन्यास?
उत्तर -- सेवासदन।

प्रश्न -- प्रेमचंद ने कितने उपन्यास लिखे हैं?
उत्तर -- प्रेमचंद जी ने लगभग 300 कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे।
प्रेमचन्द की प्रमुख कृतियाँ
प्रेमचन्द मुख्य रूप से कहानी और उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध हैं, परन्तु इन्होंने नाटक और निबन्ध को भी अपनी समर्थ लेखनी का विषय बनाया। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं

(1) उपन्यास -- प्रेमचन्द जी ने 'गोदान' , 'सेवासदन' , 'कर्मभूमि' , 'रंगभूमि' , 'गबन' , 'प्रेमाश्रम' , 'निर्मला' , 'वरदान' और 'कायाकल्प' नामक उपन्यास लिखे। 

(2) कहानी -- संग्रह-प्रेमचन्द ने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं। इनके कहानी-संग्रहों में 'सप्तसुमन' , 'नवनिधि' , 'प्रेम पचीसी' , 'प्रेम-प्रसून' , 'मानसरोवर' (आठ भाग) प्रमुख हैं।

(3) नाटक -- 'संग्राम' , 'प्रेम की वेदी' , 'कर्बला' और 'रूठी रानी'

(4) निबन्ध -- 'कुछ विचार' और 'साहित्य का उद्देश्य'

(5) सम्पादन -- माधुरी, मर्यादा, हंस, जागरण आदि।

इनके अतिरिक्त इन्होंने 'तलवार और त्याग' , दुर्गादास आदि जीवनी, बालोपयोगी साहित्य और कुछ पुस्तकों के अनुवाद द्वारा हिन्दी-साहित्य को समृद्ध किया है।

Thursday, 27 July 2023

प्रेमचंद लिखित कहानी(4) कफन

प्रेमचंद लिखित कहानी 'कफन'
झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था।

घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।

माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?

‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’

‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’

चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाज़ार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी सन्तोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें सन्तोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल जरूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिये जाते थे। संसार की चिन्ताओं से मुक्त कर्ज़ से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई गम नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ कर्ज़ दे देते थे। मटर, आलू की फसल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाये थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहान्त हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आयी थी, उसने इस ख़ानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-गैरतों का दोजख भरती रहती थी। जब से वह आयी, यह दोनों और भी आरामतलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकडऩे भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निब्र्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इन्तजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोयें।

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!

माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ़ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।

‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’

‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’

‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’

‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’

‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’

जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फ़ायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।

घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक़ बात थी, और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!

माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।

‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!

तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’

‘बीस से ज़्यादा खायी थीं!’

‘मैं पचास खा जाता!’

‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’

आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।

और बुधिया अभी तक कराह रही थी।

(2)

सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।

माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।

मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?

बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।

घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।

जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।

जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।

गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।

(3)

बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!

माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।

‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’

‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’

‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’

‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’

‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’

दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।

उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।

कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।

घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।

माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!

‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’

‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’

घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।

माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!

आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।

दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।

घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?

माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।

एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?

घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।

‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’

‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’

‘पूछेगी तो जरूर!’

‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’

माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।

‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’

‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’

‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।

वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।

और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।

भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।

घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!

माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।

घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?

श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की ख़ासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।

माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने ज़िन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!

वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।

घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।

और दोनों खड़े होकर गाने लगे- ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।

पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।

मणिपुर समस्या की जड़ें

लेख लम्बा है।
लेकिन अगर मणिपुर समस्या की जड़ें जानने की इच्छा है तो पढ़ें 👇
वो लोग जो मणिपुर का रास्ता नहीं जानते। पूर्वोत्तर के राज्यों की राजधानी शायद जानते हो लेकिन कोई दूसरे शहर का नाम तक नहीं बता सकते उनके ज्ञान वर्धन के लिए बता दूं 

"मणिपुर समस्या: एक इतिहास" 

जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने पूर्वोत्तर की ओर भी कदम बढ़ाए जहाँ उनको चाय के साथ तेल मिला। उनको इस पर डाका डालना था। उन्होंने वहां पाया कि यहाँ के लोग बहुत सीधे सरल हैं और ये लोग वैष्णव सनातनी हैं। परन्तु जंगल और पहाड़ों में रहने वाले ये लोग पूरे देश के अन्य भाग से अलग हैं तथा इन सीधे सादे लोगों के पास बहुमूल्य सम्पदा है। 

अतः अंग्रेज़ों ने सबसे पहले यहाँ के लोगों को देश के अन्य भूभाग से पूरी तरह काटने को सोचा। इसके लिए अंग्रेज लोग ले आए इनर परमिट और आउटर परमिट की व्यवस्था। इसके अंतर्गत कोई भी इस इलाके में आने से पहले परमिट बनवाएगा और एक समय सीमा से आगे नहीं रह सकता। परन्तु इसके उलट अंग्रेजों ने अपने भवन बनवाए और अंग्रेज अफसरों को रखा जो चाय की पत्ती उगाने और उसको बेचने का काम करते थे। 

इसके साथ अंग्रेज़ों ने देखा कि इस इलाके में ईसाई नहीं हैं। अतः इन्होने ईसाई मिशनरी को उठा उठा के यहां भेजा। मिशनरीयों ने इस इलाके के लोगों का आसानी से धर्म परिवर्तित करने का काम शुरू किया। जब खूब लोग ईसाई में परिवर्तित हो गए तो अंग्रेज इनको ईसाई राज्य बनाने का सपना दिखाने लगे। साथ ही उनका आशय था कि पूर्वोत्तर से चीन, भारत तथा पूर्वी एशिया पर नजर बना के रखेंगे।

अंग्रेज़ों ने एक चाल और चली। उन्होंने धर्म परिवर्तित करके ईसाई बने लोगों को ST का दर्जा दिया तथा उनको कई सरकारी सुविधाएं दी। 

धर्म परिवर्तित करने वालों को कुकी जनजाति और वैष्णव लोगों को मैती समाज कहा जाता है। 
तब इतने अलग राज्य नहीं थे और बहुत सरे नगा लोग भी धर्म परिवर्तित करके ईसाई बन गए। धीरे धीरे ईसाई पंथ को मानने वालों की संख्या वैष्णव लोगों से अधिक या बराबर हो गयी। मूल लोग सदा अंग्रेजों से लड़ते रहे जिसके कारण अंग्रेज इस इलाके का भारत से विभाजन करने में नाकाम रहे। परन्तु वो मैती हिंदुओं की संख्या कम करने और परिवर्तित लोगों को अधिक करने में कामयाब रहे। मणिपुर के 90% भूभाग पर कुकी और नगा का कब्जा हो गया जबकि 10% पर ही मैती रह गए। अंग्रेजों ने इस इलाके में अफीम की खेती को भी बढ़ावा दिया और उस पर ईसाई कुकी लोगों को कब्जा करने दिया।

आज़ादी के बाद:
आज़ादी के समय वहां के राजा थे बोध चंद्र सिंह और उन्होंने भारत में विलय का निर्णय किया। 1949 में उन्होंने नेहरू को बोला कि मूल वैष्णव जो कि 10% भूभाग में रह गए है उनको ST का दर्जा दिया जाए। नेहरू ने उनको जाने को कह दिया। फिर 1950 में संविधान अस्तित्व में आया तो नेहरू ने मैती समाज को कोई छूट नहीं दिया। 1960 में नेहरू सरकार द्वारा लैंड रिफार्म एक्ट लाया जिसमे 90% भूभाग वाले कुकी और नगा ईसाईयों को ST में डाल दिया गया। इस एक्ट में ये प्रावधान भी था जिसमे 90% कुकी - नगा वाले कहीं भी जा सकते हैं, रह सकते हैं और जमीन खरीद सकते हैं परन्तु 10% के इलाके में रहने वाले मैती हिंदुओं को ये सब अधिकार नहीं था। यहीं से मैती लोगों का दिल्ली से विरोध शुरू हो गया। नेहरू एक बार भी पूर्वोत्तर के हालत को ठीक करने करने नहीं गए।

उधर ब्रिटैन की MI6 और पाकिस्तान की ISI मिलकर कुकी और नगा को हथियार देने लगी जिसका उपयोग वो भारत विरुद्ध तथा मैती वैष्णवों को भागने के लिए करते थे। मैतियो ने उनका जम कर बिना दिल्ली के समर्थन के मुकाबला किया। सदा से इस इलाके में कांग्रेस और कम्युनिस्ट लोगों की सरकार रही और वो कुकी तथा नगा ईसाईयों के समर्थन में रहे। चूँकि लड़ाई पूर्वोत्तर में ट्राइबल जनजातियों के अपने अस्तित्व की थी तो अलग अलग फ्रंट बनाकर सबने हथियार उठा लिया। पूरा पूर्वोत्तर ISI के द्वारा एक लड़ाई का मैदान बना दिया गया। जिसके कारण Mizo जनजातियों में सशत्र विद्रोह शुरू हुआ। बिन दिल्ली के समर्थन जनजातियों ने ISI समर्थित कुकी, नगा और म्यांमार से भारत में अनधिकृत रूप से आये चिन जनजातियों से लड़ाई करते रहे। जानकारी के लिए बताते चलें कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट ने मिशनरी के साथ मिलकर म्यांमार से आये इन चिन जनजातियों को मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और जंगलों की नागरिकता देकर बसा दिया। ये चिन लोग ISI के पाले कुकी तथा नगा ईसाईयों के समर्थक थे तथा वैष्णव मैतियों से लड़ते थे। पूर्वोत्तर का हाल ख़राब था जिसका पोलिटिकल सलूशन नहीं निकाला गया और एक दिन इन्दिरा गाँधी ने आदिवासी इलाकों में air strike का आर्डर दे दिया जिसका आर्मी तथा वायुसेना ने विरोध किया परन्तु राजेश पायलट तथा सुरेश कलमाड़ी ने एयर स्ट्राइक किया और अपने लोगों की जाने ली। इसके बाद विद्रोह और खूनी तथा सशत्र हो गया।

1971 में पाकिस्तान विभाजन और बांग्ला देश अस्तित्व आने से ISI के एक्शन को झटका लगा परन्तु म्यांमार उसका एक खुला एरिया था। उसने म्यांमार के चिन लोगों का मणिपुर में एंट्री कराया जिसका कांग्रेस तथा उधर म्यांमार के अवैध चिन लोगों ने जंगलों में डेरा बनाया और वहां ओपियम यानि अफीम की खेती शुरू कर दिया। पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड दशकों तक कुकियों और चिन लोगों के अफीम की खेती तथा तस्करी का खुला खेल का मैदान बन गया। मयंमार से ISI तथा MI6 ने इस अफीम की तस्करी के साथ हथियारों की तस्करी का एक पूरा इकॉनमी खड़ा कर दिया। जिसके कारण पूर्वोत्तर के इन राज्यों की बड़ा जनसँख्या नशे की भी आदि हो गई। नशे के साथ हथियार उठाकर भारत के विरुद्ध युद्ध फलता फूलता रहा।

2014 के बाद की परिस्थिति:
मोदी सरकार ने एक्ट ईस्ट पालिसी के अंतर्गत पूर्वोत्तर पर ध्यान देना शुरू किया, NSCN - तथा भारत सरकार के बीच हुए "नागा एकॉर्ड" के बाद हिंसा में कमी आई। भारत की सेना पर आक्रमण बंद हुए। भारत सरकार ने अभूतपूर्व विकास किया जिससे वहां के लोगों को दिल्ली के करीब आने का मौका मिला। धीरे धीरे पूर्वोत्तर से हथियार आंदोलन समाप्त हुए। भारत के प्रति यहाँ के लोगों का दुराव कम हुआ। रणनीति के अंतर्गत पूर्वोत्तर में भाजपा की सरकार आई। वहां से कांग्रेस और कम्युनिस्ट का लगभग समापन हुआ। इसके कारण इन पार्टियों का एक प्रमुख धन का श्रोत जो कि अफीम तथा हथियारों की तस्करी था वो चला गया। इसके कारण इन लोगों के लिए किसी भी तरह पूर्वोत्तर में हिंसा और अशांति फैलाना जरूरी हो गया था। जिसका ये लोग बहुत समय से इंतजार कर रहे थे।

हाल ही में दो घटनाए घटीं:
1. मणिपुर उच्च न्यायालय ने फैसला किया कि अब मैती जनजाति को ST का स्टेटस मिलेगा। इसका परिणाम ये होगा कि नेहरू के बनाए फार्मूला का अंत हो जाएगा जिससे मैती लोग भी 10% के सिकुड़े हुए भूभाग की जगह पर पूरे मणिपुर में कहीं भी रह, बस और जमीन ले सकेंगे। ये कुकी और नगा को मंजूर नहीं।

2. मणिपुर के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने कहा कि सरकार पहचान करके म्यांमार से आए अवैद्य चिन लोगों को बाहर निकलेगी और अफीम की खेती को समाप्त करेगी। इसके कारण तस्करों का गैंग सदमे में आ गया।

इसके बाद ईसाई कुकियों और ईसाई नगाओं ने अपने दिल्ली बैठे आकाओं, कम्युनिस्ट लुटियन मीडिया को जागृत किया। पहले इन लोगों ने अख़बारों और मैगजीन में गलत लेख लिखकर और उलटी जानकारी देकर शेष भारत के लोगों को बरगलाने का काम शुरू किया। उसके बाद दिल्ली से सिग्नल मिलते ही ईसाई कुकियों और ईसाई नगाओं ने मैती वैष्णव लोगों पर हमला बोल दिया। जिसका जवाब मैतियों दुगुना वेग से दिया और इन लोगों को बुरी तरह कुचल दिया जो कि कुकी - नगा के साथ दिल्ली में बैठे इनके आकाओं के लिए भी unexpected था। लात खाने के बाद ये लोग अदातानुसार विक्टम कार्ड खेलकर रोने लगे। 

अभी भारत की मीडिया का एक वर्ग जो कम्युनिस्ट तथा कोंग्रस का प्रवक्ता है अब रोएगा क्योंकि पूर्वतर में मिशनरी, अवैध घुसपैठियों और तस्करों के बिल में मणिपुर तथा केंद्र सरकार ने खौलता तेल डाल दिया है।

Tuesday, 25 July 2023

प्रेमचंद लिखित कहानी (i) 'जादू'

जादू - 
नीला- तुमने उसे क्यों लिखा?

मीना- किसको?

‘उसी को?’

‘मै नही समझती।’

‘खूब समझती हो! जिस आदमी ने मेरा अपमान किया, गली-गली मेरा नाम बेचता फिरा, उसे तुम मुँह लगाती हो, क्या यह उचित हैं?’

‘तुम गलत कहती हो!’

‘तुम उसे खत, नहीं लिखा?’

‘कभी नहीं।’

‘तो मेरी गलती क्षमा करो। तुम मेरी बहन न होती, तो मैं तुमसे यह सवाल भी न पूछती।’

‘मैने किसी को खत नही लिखा।’

‘मुझे यह सुनकर खुशी हुई।’

‘तुम मुसकाती क्यो हो?’

‘मैं!’

‘जी हाँ, आप!’

‘मैं तो जरा भी नही मुसकरायी।’

‘क्या मैं अन्धी हूँ?’

‘यह तो तुम अपने मुँह से ही कहती हो।’

‘तुम क्यों मुसकरायीं?’

‘मै सच कहती हूँ, जरा भी नहीं मुसकायी।’

‘मैने अपनी आँखों से देखा।’

‘अब मैं कैसे तुम्हे विश्वास दिलाऊँ?’

‘तुम आँखों मे धूल झोंकती हो।’

‘अच्छा मुसकरायी! बस, या जान लोगी?’

‘तुम्हें किसी के ऊपर मुसकराने का क्या अधिकार हैं?’

‘तेरे पैरों पड़ती हूँ, नीला, मेरा गला छोड़ दे। मैं बिलकुल नहीं मुसकरायी।’

‘मैं ऐसी अनीली नहीं हूँ ।’

‘यह मैं जानती हूँ।’

‘तुमने मुझे हमेशा झूठी समझा हैं।’

‘तू आज किसका मुँह देखकर उठी हैं?’

‘तुम्हारा।’

‘तू मुझे थोड़ा संखिया क्यों नहीं दे देती।’

‘हाँ, मैं तो हत्यारिन हूँ।’

‘मैं तो नहीं कहती।’

‘अब और कैसे कहोगी, क्या ढोल बजाकर? मैं हत्यारिन हूँ, मदमाती हूँ, दीदा-दिलेर हूँ ; तुम सर्वगुणागरी हो, सीता हो, सावित्री हो। अब खुश हुई?’

‘लो कहती हूँ, मैने उन्हें पत्र लिखा फिर तुमसे मतलब? तुम कौन होती हो, मुझसे जवाब-तलब करने वाली?’

‘अच्छा किया, लिखा, सचमुच मेरी बेवकूफी थी कि मैने तुमसे पूछा।’

‘हमारी खुशी, हम जिसको चाहेंगे खत लिखेंगे। जिससे चाहेंगे बोलेंगे। तुम कौन होती हो रोकने वाली । तुमसे तो मैं नहीं पूछने जाती; हालाँकि रोज तुम्हें पुलिन्दों पत्र लिखते देखती हूँ।’

‘जब तुमने शर्म ही भून खायी, तो जो चाहो करो, अख्तियार हैं।’

‘और अब तुम कब से बड़ी लज्जावती बन गयीं? सोचती होगी, अम्माँ से कह दूँगी, यहाँ इसकी परवाह नहीं हैं। मैंने उन्हें पत्र भी लिखा, उनसे पार्क में मिली भी। बातचीत भी की, जाकर अम्माँ से, दादा से और सारे मुहल्ले से कह दो।’

‘जो जैसा करेगा, आप भोगेगा, मैं क्यों किसी से कहने जाऊँ?’

‘ओ हो, बड़ी धैर्यवाली, यह क्यों नही कहती, अंगूर खट्टे हैं?’

‘जो तुम कहो, वही ठीक हैं।’

‘दिल में जली जाती हो।’

‘मेरी बला जले!’
रो दो ज़रा.’’
‘‘तुम ख़ुद रोओ, मेरा अंगूठा रोए.’’
‘‘उन्होंने एक रिस्टवाच भेंट दी है, दिखाऊं?’’
‘‘मुबारक़! मेरी आंखों का सनीचर दूर होगा‍.’’
‘‘मैं कहती हूं, तुम इतनी जलती क्यों हो?’’
‘‘अगर मैं तुमसे जलती हूं तो मेरी आंखें पट्टम हो जाएं.’’
‘‘तुम जितना जलोगी, मैं उतना ही जलाऊंगी.’’
‘‘मैं जलूंगी ही नहीं.’’
‘‘जल रही हो साफ़’’
‘‘कब संदेशा आएगा?’’
‘‘जल मरो.’’
‘‘पहले तेरी भांवरें देख लूं.’’
‘‘भांवरों की चाट तुम्हीं को रहती है.’’
‘‘तो क्या बिना भांवरों का ब्याह होगा?’’
‘‘ये ढकोसले तुम्हें मुबारक़. मेरे लिए प्रेम काफ़ी है.’’
‘‘तो क्या तू सचमुच...’’
‘‘मैं किसी से नहीं डरती.’’
‘‘यहां तक नौबत पहुंच गई! और तू कह रही थी, मैंने उसे पत्र नहीं लिखा!’’
‘‘क्यों अपने दिल का हाल बतलाऊं?’’
‘‘मैं तो तुझसे पूछती न थी, मगर तू आप-ही-आप बक चली.’’
‘‘तुम मुस्कराई क्यों?’’
‘‘इसलिए कि यह शैतान तुम्हारे साथ भी वही दगा करेगा, जो उसने मेरे साथ किया और फिर तुम्हारे विषय में भी वैसी ही बातें कहता फिरेगा. और फिर तुम मेरी तरह रोओगी.’’
‘‘तुमसे उन्हें प्रेम नहीं था?’’
‘‘मुझसे! मेरे पैरों पर सिर रखकर रोता और कहता कि मैं मर जाऊंगा, ज़हर खा लूंगा.’’
‘‘सच कहती हो?’’
‘‘बिल्कुल सच.’’
‘‘यह तो वह मुझसे भी कहते हैं.’’
‘‘सच?’’
‘‘तुम्हारे सिर की कसम.’’
‘‘और मैं समझ रही थी, अभी वह दाने बिखेर रहा है.’’
‘‘क्या वह सचमुच.’’
‘‘पक्का शिकारी है.’’
मीना सिर पर हाथ रखकर चिंता में डूब गई.

Sunday, 23 July 2023

NAMO NAMO JI SHANKRA (Lyrics)

Namo Namo Lyrics In Hindi 
नमो नमो जी शंकरा लिरिक्स
जय हो जय हो शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
आदि देव शंकरा
हे शिवाय शंकरा
तेरे जाप के बिना
भोलेनाथ शंकरा
चले ये सांस किस तरह
हे शिवाय शंकरा

मेरा कर्म तू ही जाने
क्या बुरा है क्या भला
तेरे रास्ते पे मैं तो
आँख मूँद के चला

तेरे नाम की जोत ने
सारा हर लिया तमस मेरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
जय त्रिलोकनाथ शम्भू
हे शिवाय शंकरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा

सृष्टि के जनम से भी
ओ..
पहले तेरा वास था
ओ..
ये जग रहे या ना रहे
ओ..
रहेगी तेरी आस्था
ओ..

क्या समय.. क्या प्रलय
दोनों में तेरी महानता
महानता.. महानता..

सीपियों की ओंट मैं
भोलेनाथ शंकरा
मोतियाँ हो जिस तरह
हे शिवाय शंकरा
मेरे मन में शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
तू बसा है उस तरह
हे शिवाय शंकरा


मुझे भरम था जो है मेरा
था कभी नहीं मेरा
अर्थ क्या निरर्थ क्या
जो भी है सभी तेरा
तेरे सामने है झुका
मेरे सर पे हाथ रख तेरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
जय त्रिलोकनाथ शम्भू
हे शिवाय शंकरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा

चन्द्रमा ललाट पे
भस्म है भुजाओं में
वस्त्र बाघ छाल का
है खडाऊ पाँव में

प्यास क्या और तुझे
गंगा है तेरी जटाओं में
जटाओं में
जटाओं में
जटाओं में

दूसरों के वास्ते
भोलेनाथ शंकरा
तू सदैवे है जिया
हे शिवाय शंकरा
माँगा कुछ कभी नहीं
भोलेनाथ शंकरा
तूने सिर्फ है दिया
हे शिवाय शंकरा

समुद्र मंथन का था समय जो आ पड़ा
द्वंद दोनों लोक में विशामृत पे था चिड़ा
अमृत से भी मैं बाँट के
प्याला विष का तूने खुद पिया

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
हे त्रिलोकनाथ शम्भू
हे शिवाय शंकरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
हे त्रिलोकनाथ शम्भू
हे शिवाय शंकरा

नमो नमो जी शंकरा
भोलेनाथ शंकरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा
रुद्रदेव हे महेश्वरा

Wednesday, 19 July 2023

ईशा अंबानी Isha Ambani

ईशा अंबानी रिलायंस रिटेल, रिलायंस जिन, रिलायंस फाउंडेशन, रिलायंस फाउंडेशन इंस्टीट्यूशन ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च और धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल में कार्यकारी नेतृत्व टीमों का हिस्सा हैं। वह येल श्वार्ज़मैन सेंटर के सलाहकार बोर्ड में हैं, और स्मिथसोनियन नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ आसन आर्ट, दीया आर्ट फ़ाउंडेशन और जो मामी के हाउंड ऑफ़ ट्रस्टीज़ पर हैं, जो मुंबई में वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन करता है।
                     ईशा अंबानी
ईशा ने 2016 में भारत में रिलायंस के डिजिटल सेवा व्यवसाय, Jio की अवधारणा और लॉन्च करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय दूरसंचार परिदृश्य में एक गेम-चेंजर, 425 मिलियन ग्राहकों के साथ, Jio वर्तमान में भारत का सबसे बड़ा डिजिटल सेवा प्रदाता है और दुनिया में सबसे बड़ा है। दुनिया।
वह रिलायंस रिटेल का नेतृत्व करती हैं, जो किराना, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स और फैशन रिटेल में उपस्थिति के साथ राजस्व, लाभ, पहुंच और पैमाने के हिसाब से भारत का सबसे बड़ा रिटेलर है। उनके नेतृत्व में, रिलायंस रिटेल एशिया में शीर्ष -10 खुदरा विक्रेताओं में से एक है और वैश्विक शीर्ष 100 खुदरा विक्रेताओं की सूची में एकमात्र भारतीय खुदरा विक्रेता है।

ईशा रिलायंस फाउंडेशन के दृष्टिकोण और प्रभाव की देखरेख में सक्रिय रूप से शामिल है और बच्चों और महिलाओं के साथ फाउंडेशन के काम से निकटता से जुड़ी हुई है। वह रिलायंस इंडैसाइन्स लिमिटेड में विविधता और समावेशन कार्यक्रम की भी प्रमुख हैं, जो कार्यस्थल में महिलाओं के उत्थान को बढ़ावा देती है। एक कला उत्साही, वह भारत में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिलायंस फाउंडेशन द्वारा किए गए कला और संस्कृति पहल और सहयोग का नेतृत्व करती हैं। वह शिक्षा के बारे में भावुक है और रिलायंस, विशेष रूप से धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल (DAIS), रिलायंस फाउंडेशन स्कूल, और Jio Instinne की सभी शिक्षा पहलों को नेतृत्व और दिशा प्रदान करती है। डीएआईएस की उपाध्यक्ष के रूप में, वह वर्तमान में आगामी नीता मुकेश अंबानी जूनियर स्कूल, भविष्य का एक नया प्राथमिक विद्यालय, की योजना और विकास को पट्टे पर दे रही है, जिसे छात्रों के समग्र विकास के लिए सहयोगी शिक्षण और वोड-क्लास सुविधाएं प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

इहा ने 2013 में येल विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान और दक्षिण एशियाई अध्ययन में डबल मेजर के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 2018 में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से एमबीए पूरा किया।
                    Isha Ambani 
      Reliance Industries Limited.         
With this transaction, we are pleased to provide a home to the renowned formats and brands of Future Group as well as preserve its business ecosystem, which have played an important role in the evolution of modern retail in India. We hope to continue the growth momentum of the retail industry with our unique model of active collaboration with small merchants and kiranas as well as large consumer brands. We are committed to continue providing value to our consumers across the country."

Ms. Isha Ambani Director, Reliance Retail Ventures

Tuesday, 18 July 2023

INDIA'S SPACE PROGRAMMEOrganisations and Warfighting Potential


[The following is the second part of a talk which was given virtually on 25 May 2021 at the United Services Institution of India to its faculty, and undergraduate and postgraduate students taking part in a summer internship programme at the Institution. The first part covered spacecraft, launchers and exploration aspects. This concluding part gives an insight into organisations, the NewSpace phenomenon, the militarisation of space including capabilities of global space powers, and a brief overview of India’s space security policy and capabilities.]
Organisations
DOS and ISRO
The Indian Space Research Organisation (ISRO) is India’s national space agency, headquartered in Bengaluru. It operates under Department of Space (DOS) which is directly overseen by the prime minister of India. ISRO is the primary agency in India to perform tasks related to space-based applications, space exploration and development of related technologies. It is one of six government space agencies in the world which possess full launch capabilities, deploy cryogenic engines, launch extra-terrestrial missions and operate large fleets of artificial satellites.

To trace its history, the Indian National Committee for Space Research (INCOSPAR) was established under the Department of Atomic Energy (DAE) in 1962. INCOSPAR grew and became ISRO in 1969, within the DAE. In 1972, the Government of India set up a Space Commission and the Department of Space (DOS), bringing ISRO under the DOS. Since then, it has been managed by the DOS, which governs various other institutions in India in the domain of astronomy and space technology.

ISRO is one of the largest space agencies in the world. It has completed 111 spacecraft missions, 80 launch missions and has placed in orbit 342 foreign satellites from 34 countries so far. ISRO’s launch systems have earned the reputation of being amongst the most reliable and cost-effective solutions in the world ].[The following is the second part of a talk which was given virtually on 25 May 2021 at the United Services Institution of India to its faculty, and undergraduate and postgraduate students taking part in a summer internship programme at the Institution. The first part covered spacecraft, launchers and exploration aspects. This concluding part gives an insight into organisations, the NewSpace phenomenon, the militarisation of space including capabilities of global space powers, and a brief overview of India’s space security policy and capabilities.]

Organisations
DOS and ISRO
The Indian Space Research Organisation (ISRO) is India’s national space agency, headquartered in Bengaluru. It operates under Department of Space (DOS) which is directly overseen by the prime minister of India. ISRO is the primary agency in India to perform tasks related to space-based applications, space exploration and development of related technologies. It is one of six government space agencies in the world which possess full launch capabilities, deploy cryogenic engines, launch extra-terrestrial missions and operate large fleets of artificial satellites.

To trace its history, the Indian National Committee for Space Research (INCOSPAR) was established under the Department of Atomic Energy (DAE) in 1962. INCOSPAR grew and became ISRO in 1969, within the DAE. In 1972, the Government of India set up a Space Commission and the Department of Space (DOS), bringing ISRO under the DOS. Since then, it has been managed by the DOS, which governs various other institutions in India in the domain of astronomy and space technology.

ISRO is one of the largest space agencies in the world. It has completed 111 spacecraft missions, 80 launch missions and has placed in orbit 342 foreign satellites from 34 countries so far. ISRO’s launch systems have earned the reputation of being amongst the most reliable and cost-effective solutions in the world [1].

Antrix
Antrix Corporation Limited (ACL), Bengaluru is a wholly owned Government of India (GoI) enterprise under the administrative control of the DOS. Antrix was set up in 1992 as a marketing arm of ISRO for commercial exploitation of space products and transfer of technologies developed by ISRO. Another major objective was to facilitate development of space related industrial capabilities in India.

Antrix is engaged in providing space products and services to international customers worldwide. Antrix provides end-to-end solutions for many of the space products, ranging from simple subsystems to a complex spacecraft; space related services including remote sensing data service; transponder lease service; launch services; mission support services including establishment of ground infrastructure; and a host of consultancy and training services [2, 3].

Space India Limited (NSIL)
NSIL was set up by the DOS in March 2019. It aims to boost the growth of the Indian industry by taking up more technologically advanced space-related work. Its charter is to empower the industry in India. It facilitates transfer of technology from ISRO to the industry; provision of launch services for customer satellites; manufacture of SSLVs in collaboration with the private sector; production of Polar Satellite Launch Vehicle (PSLV) through industry; and production and marketing of space-based services [4].

In general, while Antrix will facilitate ISRO’s commercial deals with foreign customers, NSIL will handle capacity building of local industry for space manufacturing.

Indian National Space Promotion and Authorization Center (In-SPACe)
IN-SPACe is an independent nodal agency under Department of Space, establishment of which was announced as recently as Jun 2020. It is meant to act as a facilitator and regulator for Non-Governmental Private Entities (NGPEs). A licensing, authorisation, and supervisory regime for space activities has been put in place through IN-SPACe, as required vide the Outer Space Treaty, which India ratified in 1982 [5].

Mission Support Infrastructure
There are several establishments of ISRO which provide different services for satellite missions. Some of the major ones are [6]:-

Satish Dhawan Space Centre at Sriharikota in Andhra Pradesh is the only spaceport of India.
Master Control Facility at Hassan in Karnataka and Bhopal in Madhya 
Pradesh monitor and control all the communication and navigation satellites.
National Remote Sensing Centre at Hyderabad manages the remote sensing satellites, including dissemination of data.
ISRO Telemetry, Tracking and Command Network, Bengaluru is entrusted with providing tracking support for all the satellite and launch vehicle missions.


Sunday, 16 July 2023

Param Vishisht Seva Medal

Param Vishisht Seva Medal

  1. Lieutenant General Nav K Khanduri, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Army Air Defence (Army)
  2. Lieutenant General Rana Pratap Kalita, Uttam Yudh Seva Medal, Ati Vishisht Seva Medal, Sena Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Army)
  3. Lieutenant General Raju Somashekar Baggavalli, Uttam Yudh Seva Medal, Ati Vishisht Seva Medal, Yudh Seva Medal, The Infantry (Army)
  4. Vice Admiral Ravindra Bhartruhari Pandit, Ati Vishisht Seva Medal (Navy)
  5. Vice Admiral Biswajit Dasgupta, Ati Vishisht Seva Medal, Yudh Seva Medal, Vishisht Seva Medal (Navy)
  6. Vice Admiral Makarand Aravind Hampiholi, Ati Vishisht Seva Medal, Nao Sena Medal (Navy)
  7. Air Marshal Amar Preet Singh, Ati Vishisht Seva Medal, Flying (Pilot) (Air Force)
  8. Air Marshal Sujeet Pushpakar Dharkar, Ati Vishisht Seva Medal, Flying (Pilot) (Air Force)
  9. Air Marshal Pankaj Mohan Sinha, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, Flying (Pilot) (Air Force)
  10. Lieutenant General Channira Bansi Ponnappa, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Army)
  11. Lieutenant General Vijay Kumar Mishra, Ati Vishisht Seva Medal, The Infantry (Army)
  12. Lieutenant General Jyotinder Singh Sandhu, Ati Vishisht Seva Medal, The Armoured Corps (Army)
  13. Lieutenant General Pradeep Chandran Nair, Ati Vishisht Seva Medal, Yudh Seva Medal, The Infantry (Army)
  14. Lieutenant General Rajinder Dewan, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Army)
  15. Air Marshal Suraj Kumar Jha, Ati Vishisht Seva Medal, Flying (Pilot) (Air Force)
  16. Lieutenant General Amardeep Singh Bhinder, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Armoured Corps (Retired) (Army)
  17. Lieutenant General Ajai Singh, Ati Vishisht Seva Medal, The Armoured Corps (Retired) (Army)
  18. Lieutenant General Shashank Shekhar Mishra, Ati Vishisht Seva Medal,
  19. Vishisht Seva Medal, The Infantry (Retired) (Army)
  20. Lieutenant General Yogendra Dimri, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Corps Of Engineers (Retired) (Army)
  21. Lieutenant General Milind N Bhurke, Ati Vishisht Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Corps Of Signals (Retired) (Army)
  22. Lieutenant General Harsha Gupta, Uttam Yudh Seva Medal, Ati Vishisht Seva Medal, Yudh Seva Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Retired) (Army)
  23. Lieutenant General Ravindra Kumar Singh Kushwaha, Ati Vishisht Seva Medal, The Army Ordnance Corps (Retired) (Army)
  24. Lieutenant General Shantanu Dayal, Uttam Yudh Seva Medal, Ati Vishisht Seva Medal, Sena Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Retired) (Army)
  25. Lieutenant General Codanda Poovaiah Cariappa, Ati Vishisht Seva Medal, Sena Medal, Vishisht Seva Medal, The Infantry (Retired) (Army)
  26. Lieutenant General Tarun Kumar Chawla, Ati Vishisht Seva Medal, The Regiment Of Artillery (Retired) (Army)
  27. Air Marshal Sandesh Prabhakar Wagle, Vayu Sena Medal, Flying (Pilot) (Retired) (Air Force)
  28. Air Marshal Krishnaswamy Anantharaman, Vishisht Seva Medal, Administration (Retired) (Air Force)
  29. Director General Virender Singh Pathania, PTM, TM (Retired) (ICG)

Tuesday, 11 July 2023

#आजाद_भारत_में_गुलाम_जनता

#आजाद_भारत_में_गुलाम_जनता
भारत में सेवा करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों को इंग्लैंड लौटने पर सार्वजनिक पद/जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। तर्क यह था कि उन्होंने एक गुलाम राष्ट्र पर शासन किया है जिसकी वजह से उनके दृष्टिकोण और व्यवहार में फर्क आ गया होगा। अगर उनको यहां ऐसी जिम्मेदारी दी जाए, तो वह आजाद ब्रिटिश नागरिकों के साथ भी उसी तरह से ही व्यवहार करेंगे। इस बात को समझने के लिए नीचे दिया गया वाकया जरूर पढ़ें...

एक ब्रिटिश महिला जिसका पति ब्रिटिश शासन के दौरान पाकिस्तान और भारत में एक सिविल सेवा अधिकारी था। महिला ने अपने जीवन के कई साल भारत के विभिन्न हिस्सों में बिताए, अपनी वापसी पर उन्होंने अपने संस्मरणों पर आधारित एक सुंदर पुस्तक लिखी।

महिला ने लिखा कि जब मेरे पति एक जिले के डिप्टी कमिश्नर थे तो मेरा बेटा करीब चार साल का था और मेरी बेटी एक साल की थी। डिप्टी कलेक्टर को मिलने वाली कई एकड़ में बनी एक हवेली में रहते थे। सैकड़ों लोग डीसी के घर और परिवार की सेवा में लगे रहते थे। हर दिन पार्टियां होती थीं, जिले के बड़े जमींदार हमें अपने शिकार कार्यक्रमों में आमंत्रित करने में गर्व महसूस करते थे और हम जिसके पास जाते थे, वह इसे सम्मान मानता था। हमारी शान और शौकत ऐसी थी कि ब्रिटेन में महारानी और शाही परिवार भी मुश्किल से मिलती होगी।

ट्रेन यात्रा के दौरान डिप्टी कमिश्नर के परिवार के लिए नवाबी ठाट से लैस एक आलीशान कंपार्टमेंट आरक्षित किया जाता था। जब हम ट्रेन में चढ़ते तो सफेद कपड़े वाला ड्राइवर दोनों हाथ बांधकर हमारे सामने खड़ा हो जाता और यात्रा शुरू करने की अनुमति मांगता। अनुमति मिलने के बाद ही ट्रेन चलने लगती।
एक बार जब हम यात्रा के लिए ट्रेन में सवार हुए, तो परंपरा के अनुसार, ड्राइवर आया और अनुमति मांगी। इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती, मेरे बेटे का किसी कारण से मूड खराब था। उसने ड्राइवर को गाड़ी न चलाने को कहा। ड्राइवर ने हुक्म बजा लाते हुए कहा, जो हुक्म छोटे सरकार। कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर समेत पूरा स्टाफ इकट्ठा हो गया और मेरे चार साल के बेटे से भीख मांगने लगा, लेकिन उसने ट्रेन को चलाने से मना कर दिया। आखिरकार, बड़ी मुश्किल से, मैंने अपने बेटे को कई चॉकलेट के वादे पर ट्रेन चलाने के लिए राजी किया और यात्रा शुरू हुई।

कुछ महीने बाद, वह महिला अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने यूके लौट आई। वह जहाज से लंदन पहुंचे, उनकी रिहाइश वेल्स में एक काउंटी में थी जिसके लिए उन्हें ट्रेन से यात्रा करनी थी। वह महिला स्टेशन पर एक बेंच पर अपनी बेटी और बेटे को बैठाकर टिकट लेने चली गई। लंबी कतार के कारण बहुत देर हो चुकी थी, जिससे उस महिला का बेटा बहुत परेशान हो गया था। जब वह ट्रेन में चढ़े तो आलीशान कंपाउंड की जगह फर्स्ट क्लास की सीटें देखकर उस बच्चे को फिर गुस्सा आ गया।

ट्रेन ने समय पर यात्रा शुरू की तो वह बच्चा लगातार चीखने-चिल्लाने लगा। वह ज़ोर से कह रहा था, "यह कैसा उल्लू का पट्ठा ड्राइवर है। उसने हमारी अनुमति के बिना ट्रेन चलाना शुरू कर दी है। मैं पापा को बोल कर इसे जूते लगवा लूंगा।" महिला को बच्चे को यह समझाना मुश्किल हो रहा था कि यह उसके पिता का जिला नहीं है, यह एक स्वतंत्र देश है। यहां डिप्टी कमिश्नर जैसा तीसरे दर्जे का सरकारी अफसर तो क्या प्रधानमंत्री और राजा को भी यह अख्तियार नहीं है कि वह लोगों को अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए अपमानित कर सके।

आज भले ही हमने अंग्रेजों को खदेड़ दिया है लेकिन हमने गुलामी को अभी तक देश बदर नहीं किया। आज भी कई अधिकारी, एसपी, मंत्री, सलाहकार और राजनेता अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए आम लोगों को घंटों सड़कों पर परेशान करते हैं।

प्रोटोकॉल आम जनता की सुविधा के लिए होना चाहिए, ना कि उनके लिए परेशानी का कारण।
       Gorakhari अपना गांव :- गोरखरी

Happy Classroom

ज्ञान भारती विद्यालय में सत्र 2023 का द्वितीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया। आज (05/07/2023) के प्रशिक्षण कार्यक्रम में हैप्पी क्लासरूम के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया। शुरू होने वाले इज नए सत्र में बोर्ड द्वारा हैप्पी क्लासरूम के युक्तियों के तहत संचालित किया जाएगा। जिसमें स्कूल के माहौल में बदलाव किया जाएगा एवं क्लास रूम में एकेडमी पढ़ाई के साथ-साथ अब उन विषयों पर भी शिक्षक बच्चों से खुलकर बात करेंगे जिनके कारण बच्चे तनाव में रहते हैं।l
एक खुशहाल कक्षा से शैक्षणिक परिणामों और छात्रों के व्यक्तिगत विकास में बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। खुशी और सीखने के तनाव को कैसे संतुलित करते हैं? एक शिक्षक खुशहाल कक्षा कैसे प्राप्त करें,? इसके बारे में श्रीमान विशाल कुमार जानकारी देते हुए बताते हैं कि..
एक खुशहाल कक्षा के अस्तित्व के लिए तीन चीजें होनी आवश्यक हैं

1.एक शिक्षक को ऐसी प्रक्रियाओं/नीतियों को लागू करना चाहिए है जो छात्रों एवं छात्राओं के शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक सुरक्षा दें।
छात्रों को कक्षा के अंदर अपनी बात कहने और उनकी भावनाओं को सुनने की अनुमति दें। शिक्षक बंधु दृढ़ रहें लेकिन निष्पक्ष रहें। स्वयं को वैसा मॉडल बनाएं जो अपने विद्यार्थियों में देखना चाहते हैं। इसका मतलब है कि विद्यार्थी आपका अनुसरण करें, इसके लिए एक अच्छा उदाहरण स्थापित करना होगा।

2. छात्रों को मूल्यवान महसूस करना चाहिए।
विद्यार्थियों को एक व्यक्ति के रूप में जानें। यदि आप एक खुशहाल कक्षा चाहते हैं तो आपको उनके साथ सकारात्मक संबंध विकसित करने की आवश्यकता है। जब कोई छात्र दुर्व्यवहार करे तो उससे अकेले में बात करने का प्रयास करें। किसी छात्र को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने से हालात और खराब होंगे। यदि छात्रों को पता चलेगा कि आपको उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है, तो वे पाठ के बारे में ज्यादा परवाह नहीं करेंगे। लेकिन एक बार जब उन्हें एहसास होगा कि आप परवाह करते हैं, तो वे आपकी बात सुनने के लिए अधिक इच्छुक होंगे।

3. छात्रों को सफल महसूस करना चाहिए।
एक शिक्षक के रूप में, आपको यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए कि छात्र अकादमिक रूप से सफल हों। 
जब भी उपयुक्त हो प्रौद्योगिकी और सहयोग को शामिल करें। असाइनमेंट देते समय, स्पष्ट रूप से बताएं कि आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं। 
यदि आवश्यक हो तो रचनात्मक प्रतिक्रिया प्रदान करें। सबसे महत्वपूर्ण बात, सफलताओं का जश्न मनाना न भूलें।

एक खुशहाल कक्षा कैसे प्राप्त करें, इस पर 7 युक्तियाँ

(I) अपने छात्रों को जानने के लिए कुछ समय निवेश करें।
अपने प्रत्येक छात्र को जानने का प्रयास करें। इससे न केवल छात्रों को कक्षा में सहज महसूस होगा, बल्कि शिक्षक को एक देखभाल करने वाला कक्षा समुदाय बनाने में भी मदद मिलेगी। अपने विद्यार्थियों को जानने से आपको उन्हें बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी।

(ii)  हास्य का प्रयोग करें.
कक्षा के अंदर हास्य का उपयोग करने के किसी भी अवसर का उपयोग करें। आख़िर हँसना कौन नहीं चाहता? कोई चुटकुला, मज़ेदार कहानी या कोई अविस्मरणीय अनुभव बताएँ। हर समय चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से न लेने का प्रयास करें। आप जो भी विषय पढ़ा रहे हैं, छात्रों को बेहतर ढंग से संलग्न करने के लिए आप उसे वास्तविक दुनिया की स्थितियों से जोड़ सकते हैं।

(iii) प्रशंसा करना.
प्रशंसा की शक्ति को कम मत समझो. बच्चों को यह बताया जाना अच्छा लगता है कि वे अद्भुत हैं। यह "अच्छा काम!" कहने जितना सरल हो सकता है। या बाकी कक्षा के लिए एक घोषणा। जो ग़लत है उसे उजागर करने के बजाय, उसके विपरीत कार्य करें और अच्छे व्यवहार को सामने लाएँ। छात्र उस तरह का ध्यान चाहते हैं और इसे पाने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे।

(iv) विकल्प दीजिए.
आमतौर पर, शिक्षक नियम निर्धारित करते हैं और तय करते हैं कि कक्षा के अंदर चीजें कैसे चलेंगी। छात्रों को अपने लिए चुनाव करने का मौका शायद ही मिलता है। छात्रों को यह कहने की अनुमति देना कि वे क्या और कैसे सीखेंगे, उन्हें खुश करने का एक अच्छा तरीका है। ऐसा करने से छात्रों को कुछ हद तक स्वतंत्रता मिलेगी और यह पता चलेगा कि आप उन पर भरोसा करते हैं।

(v) खेलने के लिए समय आवंटित करें.
बच्चे के विकास में खेल का समय महत्वपूर्ण है। यह उन्हें मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक रूप से बढ़ने में मदद करता है। खेलना एक महान रचनात्मक माध्यम है, यह छात्रों को विभिन्न चीजों को आज़माने की अनुमति देता है, और उन्हें दूसरों के साथ बातचीत करना सिखाता है। बेशक, हर चीज़ का एक समय होता है और किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है। समाधान - कब खेलना है इसका सही समय जानें।

(vii) विद्यार्थियों को अवकाश दें।
छात्र तब सबसे अच्छा सीखते हैं जब उन्हें पूरे स्कूल के दिन अपने दिमाग को आराम देने का मौका दिया जाता है। इसका उद्देश्य छात्रों को फिर से ध्यान केंद्रित करना और मानसिक तनाव से बचाना है। प्रत्येक पाठ के बाद विद्यार्थियों को कुछ समय का अवकाश दें। यहां तक कि 5 मिनट का ब्रेक भी बहुत काम आएगा। प्राथमिक छात्रों के लिए 9 ब्रेन ब्रेक देखें ।

(vii) छात्रों को सामाजिक होने दें।
छात्रों को अपने साथियों के साथ बातचीत करने के अवसर प्रदान करें। यह एक सकारात्मक कक्षा वातावरण को बढ़ावा देने में मदद करेगा। स्कूल के काम के अलावा अन्य चीज़ों के बारे में बात करना (उर्फ सामाजिक होना) छात्रों को खुश करता है। छात्रों को अपने सहपाठियों के साथ संवाद करने के लिए हर दिन कुछ मिनट दें।

कैप्टन विक्रम बत्रा

Captain Vikram Batra's Fight Scene

Captain Vikram Batra, PVC (9 September 1974 – 7 July 1999) was an officer of the Indian Army. He was posthumously awarded the Param Vir Chakra, India's highest and most prestigious award for valour, for his actions during the 1999 Kargil War, during which he led one of the most difficult mountain warfare operations in Indian military history.
CAPTAIN VIKRAM BATRA
13 JAMMU AND KASHMIR RIFLES 
(IC 57556)
During 'Operation Vijay', on 20 June 1999, Captain Vikram Batra, Commander Delta Company was tasked to attack Point 5140. Captain Batra with his company skirted around the feature from the East and maintaining surprise reached within assaulting distance of the enemy. Captain Batra reorganized his column and motivated his men to physically assault the enemy positions. Leading from the front, he in a daredevil assault, pounced on the enemy and killed four of them in a hand-to hand fight. On 7 July 1999, in another operation in the area Pt 4875, his company was tasked to clear a narrow feature with sharp cuttings on either side and heavily fortified enemy defences that covered the only approach to it. For speedy operation, Captain Batra assaulted the enemy position along a narrow ridge and engaged the enemy in a fierce hand –to-hand fight and killed five enemy soldiers at point blank range. Despite sustaining grave injuries, he crawled towards the enemy and hurled grenades clearing the position with utter disregard to his personal safety, leading from the front, he rallied his men and pressed on the attack and achieved a near impossible military task in the face of heavy enemy fire. The officer, however, succumbed to his injuries. Inspired by his daredevil act, his troops fell upon the enemy with vengeance, annihilated them and captured Point 4875.
Captain Vikram Batra, thus, displayed the most conspicuous personal bravery and leadership of the highest order in the face of the enemy and made the supreme sacrifice in the highest traditions of the Indian Army.
Batra was born on 9 September 1974, in a small town in Palampur, Himachal Pradesh. He was the third child of Girdhari Lal Batra, a government school principal, and Kamal Kanta Batra, a school teacher. He was the elder of twin sons, and was born fourteen minutes before his brother, named Vishal. The twins were nicknamed: 'Luv' (Vikram) and 'Kush' (Vishal), after the twin sons of the Hindu deity Rama, by their mother who was a professed devotee of Rama. He had two sisters: Seema and Nutan. As a young child, Batra received his primary education under the tutelage of his mother.[4][5][a] He then attended the D.A.V. Public School in Palampur, where he studied up to middle standard. He received his senior secondary education at Central School, Palampur.

Besides his academic excellence, Batra played sports and represented his school at the national level during the Youth Parliamentary competitions at Delhi. He represented his school and college in table tennis, Karate and other such games. In 1990, he and his twin brother represented their school in table tennis at All India KVS Nationals. He also was a green belt holder in Karate and went on to attend a national level camp in Manali.

After completing his Class XII board examinations in 1992 from Central School, he attended DAV College, Chandigarh in B.Sc Medical Sciences. At college, he joined the Air Wing of the National Cadet Corps (NCC) while he was in his first year. During the Inter-State NCC Camp, he was adjudged the best NCC Air Wing cadet of Punjab Directorate in North Zone.He was selected and underwent a 40-day paratrooping training with his NCC Air Wing unit at Pinjore Airfield and Flying Club, about 35 kilometres away from Chandigarh.During the next two years in DAV, he remained a cadet of the Army Wing of NCC.[11] In addition, he was the president of the Youth Service Club of his college.

He afterward qualified for the 'C' certificate in the NCC and attained the rank of Senior Under Officer in his NCC unit.[ Subsequently, in 1994, he was selected and took part in the Republic Day parade as an NCC cadet, and when he came back home, he told his parents that he wanted to join the Army.His maternal grandfather was also a soldier in the Indian Army. In 1995, while still in college, he was selected for the merchant navy at a shipping company headquartered in Hong Kong, but ultimately he changed his mind, telling his mother that "Money is not everything in life; I have to do something bigger in life, something great, something extraordinary, which may bring fame to my country.That same year he completed his bachelor's degree, graduating from the DAV College in Chandigarh.

Following completion of his bachelor's degree in 1995, he enrolled at Panjab University in Chandigarh, where he took admission in MA English course, so that he could prepare for the "Combined Defence Services" (CDS) Examination. He attended evening classes at the University and worked part-time in the morning as a branch manager of a travelling agency in Chandigarh.
In 1996, he passed the CDS examination and subsequently received a call for an interview at the Services Selection Board (SSB) at Allahabad and was selected. He was among the top 35 candidates in the Order of Merit. After completing a year (session 1995—96) towards the degree of MA in English, he left the University to join the Indian Military Academy.

Winners

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