नौशाद अली के संगीत की बात ही अलग थी.

पहली फ़िल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फ़िल्मों में ही संगीत दिया, लेकिन उनका कौशल इस बात की जीती जागती मिसाल है कि गुणवत्ता संख्याबल से कहीं आगे होती है. भारतीय सिनेमा को समृद्ध बनाने वाले संगीतकारों की कमी नहीं है लेकिन नौशाद अली के संगीत की बात ही अलग थी. नौशाद ने फ़िल्मों की संख्या को कभी तरजीह नहीं देते हुए केवल संगीत को ही परिष्कृत करने का काम किया.
नौशाद हिंदी सिनेमा के फैन तब से थे जब मूक फिल्में बना करती थीं. 1931 में भारतीय सिनेमा में आवाज आई उस समय नौशाद 13 साल के थे. नौशाद मुस्लिम परिवार से थे इसलिए उनके संगीत सीखने पर पाबंदी थी. नौशाद का घर लखनऊ के अकबरी गेट के कांधारी बाज़ार, झंवाई टोला में था. वे लाटूस रोड पर अपने उस्ताद उमर अंसारी से संगीत सीखने लगे, इस बात से उनके वालिद नाराज़ रहते थे. नौशाद के पिता ने उन्हें सख्त हिदायत दी कि अगर घर में रहना है तो तुम्हें संगीत छोड़ना पड़ेगा. 
मैट्रिक पास करने के बाद वे लखनऊ के 'विंडसर एंटरटेनर म्यूज़िकल ग्रुप' के साथ दिल्ली, मुरादाबाद, जयपुर, जोधपुर और सिरोही की यात्रा पर निकले. जब कुछ समय बाद वह म्यूज़िकल ग्रुप बिखर गया तो नौशाद ने लखनऊ लौटने के बजाए मुंबई का रुख़ किया और 16 वर्ष की किशोर उम्र में यानी 1935 में वे मुंबई आ गए. नौशाद के लिए मुंबई उम्मीदों का शहर था। यहां उन्हें पहला ठिकाना के रूप में दादर के ब्रॉडवे सिनेमाघर के सामने का फुटपाथ मिला. तब नौशाद ने सपना देखा था कि कभी इस सिनेमाघर में उनकी कोई फ़िल्म लगेगी. उस किशोर कल्पना को साकार होने में काफ़ी वक़्त लगा. 'बैजू बावरा' जब उसी हॉल में रिलीज़ हुई, तो वहां रिलीज़ के समय नौशाद ने कहा, इस सड़क को पार करने में मुझे सत्रह साल लग गए.
नौशाद ने अपने शुरुआती दिनों में एक पियानो वादक के रूप में भी काम किया. नौशाद संगीतकार उस्ताद झंडे खान के साथ 40 रुपये महीने की पगार पर काम किया करते थे. इसके बाद कंपोजर खेमचंद प्रकाश ने उन्हें फिल्म कंचन में असिस्टेंट के रूप में रख लिया. तब नौशाद को महीने के 60 रुपये मिलते थे. नौशाद खेमचंद को अपना गुरु मानते थे. उन्हें पहली बार 1940 में एक संगीतकार के रूप में काम करने का मौका फिल्म ‘प्रेम नगर’ में मिला लेकिन यह फिल्म रिलीज नहीं हुई. उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्शित हुई 'रतन' से जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यहीं से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है.
उन्होंने छोटे पर्दे के लिए 'द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' और 'अकबर द ग्रेट' जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया. बहरहाल नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा. यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की "ताजमहल" जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई. मुगले आजम को जब रंगीन किया गया तो उन्हें बेहद खुशी हुई.
यह नौशाद के संगीत का ही जादू था कि 'मुग़ल-ए-आजम', 'बैजू बावरा', 'अनमोल घड़ी', 'शारदा', 'आन', 'संजोग' आदि कई फ़िल्मों को न केवल हिट बनाया बल्कि कालजयी भी बना दिया. 'दीदार' के गीत- 'बचपन के दिन भुला न देना...', 'हुए हम जिनके लिए बरबाद...', 'ले जा मेरी दुआएँ ले जा परदेश जाने वाले...' आदि की बदौलत इस फ़िल्म ने लंबे समय तक चलने का रिकॉर्ड क़ायम किया. इसके बाद तो नौशाद की लोकप्रियता में ख़ासा इजाफा हुआ. 'बैजू बावरा' की सफलता से नौशाद को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फ़िल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला. संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए 1982 में दादा साहेब फालके अवॉर्ड, 1984 में लता अलंकरण तथा 1992 में पद्म भूषण से उन्हें नवाजा गया.

नौशाद को सुरैया, अमीरबाई कर्नाटकी, निर्मलादेवी, उमा देवी आदि को प्रोत्साहित कर आगे लाने का श्रेय जाता है. 13 वर्षीय सुरैया को पहली बार उन्होंने 'नई दुनिया' में गाने का मौका दिया. इसके बाद 'शारदा' व 'संजोग' में भी गाने गवाए. सुरैया के अलावा अभिनेता गोविंदा की माताजी निर्मलादेवी से सबसे पहले 'शारदा' में तथा उमा देवी यानी टुनटुन की आवाज का इस्तेमाल 'दर्द' में 'अफ़साना लिख रही हूँ...' के लिए नौशाद ने किया. नौशाद ने ही मुकेश की दर्दभरी आवाज का इस्तेमाल 'अनोखी अदा' और 'अंदाज' में किया. 'अंदाज' में नौशाद ने दिलीप कुमार के लिए मुकेश और राज कपूर के लिए मो. रफी की आवाज का उपयोग किया. 1944 में युवा प्रेम पर आधारित 'रतन' के गाने उस समय के दौर में सुपरहिट हुए थे.
नौशाद और सहगल का एक वाकया - 'शाहजहाँ' में हीरो कुंदनलाल सहगल से नौशाद ने गीत गवाए. उस समय ऐसा माना जाता था कि सहगल बगैर शराब पिए गाने नहीं गा सकते. नौशाद ने सहगल से बगैर शराब पिए एक गाना गाने के लिए कहा तो सहगल ने कहा, 'बगैर पिए मैं सही नहीं गा पाऊँगा.' इसके बाद नौशाद ने सहगल से एक गाना शराब पिए हुए गवाया और उसी गाने को बाद में बगैर शराब पिए गवाया. जब सहगल ने अपने गाए दोनों गाने सुने तब नौशाद से बोले, 'काश! मुझसे तुम पहले मिले होते?' यह गीत कौन-सा था, इसका तो पता नहीं चला लेकिन 'शाहजहाँ' के गीत 'जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे...' तथा 'गम दिए मुस्तकिल, कितना नाज़ुक है दिल... कालजयी सिद्ध हुवे.
तुम महान गायक बनोगे' - 'पहले आप' के निर्देशक अब्दुल रशीद कारदार के पास एक बार सिफारिशी पत्र लेकर एक लड़का पहुँचा. तब उन्होंने नौशाद से कहा कि भाई, इस लड़के के लिए कोई गुंजाइश निकल सकती है क्या? नौशाद ने सहज भाव से कहा, 'फिलहाल तो कोई गुंजाइश नहीं है. हाँ, अलबत्ता इतना ज़रूर है कि मैं इनको कोई समूह (कोरस) में गवा सकता हूँ', लड़के ने हाँ कर दी. गीत के बोल थे - 'हिन्दू हैं हम हिन्दुस्तां हमारा, हिन्दू-मुस्लिम की आँखों का तारा...'. इसमें सभी गायकों को लोहे के जूते पहनाए गए, क्योंकि गाते समय पैर पटक-पटककर गाना था ताकि जूतों की आवाज का इफेक्ट आ सके. उस लड़के के जूते टाइट थे. गाने की समाप्ति पर लड़के ने जूते उतारे तो उसके पैरों में छाले पड़ गए थे. यह सब देख रहे नौशाद ने उस लड़के के कंधे पर हाथ रखकर कहा, 'जब जूते टाइट थे तो तुम्हें बता देना था.' इस पर उस लड़के ने कहा, 'आपने मुझे काम दिया, यही मेरे लिए बड़ी बात है.' तब नौशाद ने कहा था, 'एक दिन तुम महान गायक बनोगे.' यह लड़का आगे चलकर मोहम्मद रफ़ी के नाम से जाना गया.
अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, उड़न खटोला, दीवाना, दिल्लगी, दर्द, दास्तान, शबाब, बाबुल, मुग़ल-ए-आज़म, दुलारी, शाहजहां, लीडर, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, गंगा जमुना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्म कांटा, पाक़ीज़ा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया.

मारफ्तुन नगमात जैसी संगीत की अप्रतिम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौशाद ने मुंबई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा. मुम्बई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था, जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे - मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुलतान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली 'कुमार'.

यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान 'आठवां सुर' नाम से प्रकाशित हुआ. 
नौशाद की दिलचस्प संगीत शैली -.नौशाद ने फिल्मी गीतों के लिए शास्त्रीय संगीत के साथ कुछ इस तरह का ताना-बाना बुना कि यह नया स्टाइल हर किसी को बहुत पसंद आया. “बैजू बावरा” जैसी कुछ ऐसी फिल्मों रही, जिनके लिए उन्होंने शास्त्रीय संगीत की सभी राग-विधाओं को संगीतबद्ध किया. “बैजू बावरा” के लिए उन्होंने जाने-माने गायक आमिर खान को इस फिल्म के संगीत सलाहकार के रूप में नियुक्त किया. नौशाद शहनाई से लेकर मेंडोलिन और अन्य पश्चिमी वाद्य यंत्रों की भी अच्छी समझ रखते थे. वे अपनी रचनाओं में पश्चिमी संगीत के मुहावरों को शामिल करते थे. यहां तक कि उन्हें पश्चिमी शैली के आर्केस्ट्रा की रचना तक करना आता था. उनके संगीत में एक नयापन था, जो उस समय के बाकी संगीतकारों के संगीत में देखने को नहीं मिलता था.

1940 दशक की शुरुआत में, आधी रात को शांत पार्कों और उद्यानों में रिकॉर्डिंग की जाती थी, क्योंकि उन दिनों स्टूडियो साउंडप्रूफ रिकॉर्डिंग रूम जैसे नहीं होते थे. बगीचों में, टिन की छतों वाले स्टूडियो में गूंजती आवाज़ जैसी कोई प्रतिध्वनि और गड़बड़ी नहीं होती थी.

कुछ फिल्में जैसे कि “उड़न खटोला” और “अमर” के लिए, उन्होंने एक विशेष प्रकार से कलाकार की आवाज को रिकॉर्ड किया. इसके लिए उन्होंने पहले कलाकार की आवाज को 90 के पैमाने पर रिकॉर्ड किया, फिर इसे 70 पर, फिर 50 पर और इसी तरह आगे रिकॉर्डिंग जारी रखीं. पूरी रिकॉर्डिंग के बाद, जब इसके गीतों को सुना गया, तो जो प्रभाव हुआ वह बहुत जबरदस्त था.

नौशाद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने साउंड मिक्सिंग को फिल्मों में जगह दिलवाई साथ ही उन्होंने आवाज को पहले अलग से रिकॉर्ड किया और बाद में म्यूजिक ट्रैक के साथ रिकॉर्डिंग करवाई ऐसे करवाने का प्रभाव काफी अलग और बेहतरीन साबित हुआ.

साथ ही नौशाद बांसुरी और शहनाई, तथा सितार और मैंडोलिन को संयोजित करने वाले भी पहले व्यक्ति थे.
उन्होंने अकॉर्डियन को हिंदी फिल्मों के संगीत में जगह दिलवाई.

फिल्म की कहानी के पात्र के मूड और संवाद के अनुसार बैकग्राउंड संगीत पर भी ध्यान केंद्रित हो सके, ऐसे संगीत की रचना की.
नौशाद के सबसे बड़े योगदान में भारतीय शास्त्रीय संगीत को फिल्मों में लाना माना जाता है. उनकी रचनाएं रागों से भी प्रेरित थीं, इसे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए, इन्होंने अपने संगीत के लिए कुछ प्रतिष्ठित शास्त्रीय कलाकारों को जैसे आमिर खान और डी. वी. पलुस्कर को “बैजू बावरा” और बड़े गुलाम अली खान को “मुग़ल-ए-आज़म” (1960) के लिए चुनाव किया.

“बैजू बावरा” (1952), ने नौशाद की शास्त्रीय संगीत की समझ और उनकी क्षमता का प्रदर्शन सभी के सामने प्रदर्शित किया, जिसके लिए उन्होंने 1954 में पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का पुरस्कार जीता. नौशाद ने “बैजू बावरा” के बारे में रिलीज से पहले मीडिया के साथ बैठक में एक टिप्पणी की, कि “जब लोगों ने सुना कि फिल्म शास्त्रीय संगीत और रागों से भरी होगी, तो उन्होंने विरोध किया, ‘लोगों को सिरदर्द होगा’ और ‘वे भाग जाएंगे.’ परंतु मैं अपने निश्चय पर अडिग था. मैं लोगों का शास्त्रीय संगीत के प्रति रवैया और सोच बदलना चाहता था, कुछ ऐसा फिल्मों में लाना चाहता था जो लोगों को पसंद भी आए और हमारी संस्कृति के संगीत के साथ जुड़ा हुआ भी हो, इसीलिए हमने उन्हें अपनी संस्कृति के संगीत के साथ इसे प्रस्तुत किया और लोगों ने इस काम को पसंद भी किया.”

फिल्म आन (1952) के लिए वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 100 ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया. वह भारत में, पश्चिमी अंकन की प्रणाली को विकसित करने वाले पहले संगीतकार थे. फिल्म “आन” के संगीत का अंकन लंदन में एक पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया गया.

फिल्म “उड़न खटोला” (1955) में, उन्होंने ऑर्केस्ट्रा के उपयोग के बिना ही एक पूरे गाने को रिकॉर्ड किया, उन्होंने संगीत वाद्य यंत्रों की जगह गुनगुनाने की ध्वनि को इस्तेमाल किया.

फिल्म “मुग़ल-ए-आज़म” (1960) का गीत “ऐ मोहब्बत जिंदाबाद...”, के लिए उन्होंने 100 व्यक्तियों की कोरस में इस्तेमाल किया. फिल्म केेे एक अन्य गीत “प्यार किया तो डरना क्या...” के लिए उन्होंने लता मंगेशकर को बाथरूूम में बंद किया और गीत के एक हिस्से को प्रस्तुत करने के लिए कहा, सब कुछ उन्होंने गूंज के प्रभाव को प्राप्त करने के लिए किया था.
फिल्म “गंगा जमुना” (1961) में उन्होंने पूरी तरह से भोजपुरी बोली में गीत का इस्तेमाल किया.

इसी प्रकार कुछ अलग करने की चाह में उन्होंने फिल्म “मेरे महबूब” (1963), के शीर्षक गीत में सिर्फ छह उपकरणों का इस्तेमाल किया.

2004 में, क्लासिक मुग़ल-ए-आज़म (1960) का एक रंगीन संस्करण जारी किया गया, जिसके लिए आज के संगीतकारों द्वारा, नौशाद के लिए एक बार फिर से एक ऑर्केस्ट्रा संगीत का इंतजाम किया गया, जो मूल रूप से डॉल्बी डिजिटल में था, जबकि मूल साउंडट्रैक से सभी एकल संगीत को बनाए रखा गया.

नौशाद ने 86 वर्ष की आयु में एक शाश्वत लव स्टोरी ताजमहल की धुनों की रचना की यह फिल्म 2005 में बनी थी.

निधन - सन 1940 से 2006 तक उन्होंने अपना संगीत का सफर जारी रखा. उन्होंने अंतिम बार 2006 में बनी 'ताजमहल - एक शाश्वत लव स्टोरी' के लिए संगीत दिया. अपने अंतिम दिनों तक वे कहते थे, 'मुझे आज भी ऐसा लगता है कि अभी तक न मेरी संगीत की तालीम पूरी हुई है और न ही मैं अच्छा संगीत दे सका.' और इसी मलाल के साथ वे 05 मई, 2006 को इस दुनिया से रुखसत हो गए.

नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इससे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है -
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है
क्या जाने क्यूं उड़ गए पंक्षी पेड़ों से
भरी बहारों में गुलशन वीराना है.

5 May 2023
उनकी पुण्यतिथि भावभीनी श्रद्धांजलि🙏🏻💐

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