बिहार में उजड़े उद्योग की दास्तां

"हम लोगों का फ़ैक्ट्री कबाड़े-कबाड़ रह गया, बाल-बच्चा सब भटक रहा है, दिल्ली, पंजाब यूपी-हरियाणा. होटल में काम करता है, प्लेट धोता है, कोई 3 हज़ार देता है, कोई 5 हज़ार देता है. ये फ़ैक्ट्री खुल जाए तो हमारा बच्चा सब नेता लोगों को इतना गेंदा का माला पहना देगा कि उनसे संभलेगा नहीं."
दरभंगा ज़िले के हायाघाट में एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे उपेंद्र यादव अशोक पेपर मिल के सामने अपनी भैंसों को चराते हुए ये बात कहते हैं.

उनके पीछे सफ़ेद गेट पर ताला लगा है जिस पर हरे पेंट से अंग्रेजी में अशोक पेपर मिल लिखा है.

उपेंद्र इस पेपर मिल की कहानियां बताते हुए कहते हैं, "हमारा भी 18 बिगहा ज़मीन दरभंगा महाराज को दे दिया गया ताकि ये फ़ैक्ट्री बैठेगी तो रोज़गार आएगा. आज वो ज़मीन होती तो हमारे पास पैसा होता."

अपनी बेहतरीन पेपर क्वॉलिटी के लिए पहचाने जाने वाली अशोक पेपर मिल नवंबर 2003 से बंद पड़ी है.

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पेपर मिल की तरह ही बिहार के चीनी मिल, जूट मिल सहित राज्य की पूरी इंडस्ट्री जिसका एक सुनहरा अतीत था, उसका वर्तमान आज अंधेरे में डूबा हुआ है.

बिहार चुनाव में रोज़गार सबसे बड़ा मुद्दा था, सभी पार्टियों के घोषणापत्रों में एक वादा जो कॉमन था, वह है रोज़गार देने का वादा. लेकिन बिहार में इन पार्टियों की ही सरकारों में राज्य के उद्योग-धंधे तिल-तिल कर ख़त्म हुए.

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अशोक पेपर मिल की शुरुआत 1958 में दरभंगा महाराज ने की थी, इसके लिए किसानों से ज़मीन मांगी गई और बदले में उन्हें फ़ैक्ट्री लगाने के फ़ायदे बताए गए.

साल 1989 में इस मिल का मालिकाना हक़ बिहार सरकार को मिला लेकिन 1990 तक बिहार सरकार ने चीज़ें अपने हाथ में नहीं लीं.

इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और कोर्ट ने इंडस्ट्रियल पॉलिसी और प्रमोशन विभाग के सचिव से अशोक पेपर मिल का रिवाइवल प्लान कोर्ट में पेश करने को कहा. साल 1996 में कोर्ट में एक ड्राफ्ट पेश किया गया और मिल के निजीकरण की सिफ़ारिश हुई, जिसे कोर्ट ने सहमति दे दी.

साल 1997 में आईडीबीआई बैंक मर्चेंट बैंकर बना और अशोक पेपर मिल का सौदा मुंबई की कंपनी नुवो कैपिटल एंड फ़ाइनैंस लिमिटेड के मालिक धरम गोधा को मिल गया.

इसके बाद भी मिल लगभग 6 महीने ही चल सकी और नवंबर 2003 में इसका ऑपरेशन पूरी तरह से बंद हो गया. लगभग 400 एकड़ में फैली इस फ़ैक्ट्री में आज जंगल जैसी घास फैली हुई है और ये ज़हरीले सापों का डेरा बनकर रह गया है.

पास के गांव में रहने वाले महावीर यादव कहते हैं, "इतने नेता आए, देखे और चले गए लेकिन कुछ ना हुआ. अब ये मिल बंद ही है. यही हमारा दुर्भाग्य है, कोई नेता ऐसा हो जो कुछ कर सके."

"बिहार का आदमी तो भूखों मर रहा है, दूर देश जा रहा है. नीतीश कुमार ने तो जो किया, हम क्या बताएं. नल-जल में जितना पैसा ख़र्च किया है अगर उतना कारखाने में खर्च होता 50 गो कारखाना खुल जाता."

न्यूज़क्लिक की एक रिपोर्ट कहती है कि जो समझौता गोधा और सरकार के बीच हुआ उसके तहत 504 करोड़ रुपये का निवेश अशोक पेपर मिल में करना था. लेकिन ये हुआ ही नहीं.

38 बिंदुओं वाले इस समझौते के हिसाब से 18 महीने के भीतर मिल को चालू करना था. कर्मचारियों के बकाया वेतन देने थे. इसके अनुसार मिल की संपत्ति को बाहर ले जाना मना था. सिर्फ़ वही मशीनें बाहर लाई जा सकती थीं जिन्हें रिपेयरिंग की ज़रूरत थी.

लेकिन उपेंद्र यादव बताते हैं, "यहां से ट्रक में सारा फ़ैक्ट्री का सामान भर-भर कर जाता रहा. साल 2012 की बात है जब ट्रक में मशीन भर कर ले जाया जा रहा था तो सब कर्मचारी प्रदर्शन करने लगे."

"इतने में मिल के एक गार्ड ने गोली चलाई और गांव का लड़का सुशील शाह जो मिल में मज़दूर था मारा गया. आज तक उसके मां-बाप उसके बकाया पैसे का इंतज़ार कर रहे हैं, कोई आसरा तो नहीं है. इस मिल से हमको अब."

हालांकि बीबीसी इन आरोपों की पुष्टि नहीं करता है.

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बिहार चुनावः मनरेगा मज़दूर किस हाल में हैं?

मीठी चीनी मिलों की कड़वी दास्तां
बिहार चीनी के उत्पादन के लिए जाना जाता था. देश के कुल चीनी उत्पादन का 40 फ़ीसदी हिस्सा बिहार में होता था.

देश की आज़ादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें हुआ करती थीं लेकिन आज 28 चीनी मिलें हैं इनमें से भी सिर्फ़ 11 मिलें ऐसी हैं जो इस वक्त चालू हालत में हैं. और इनमें से भी 10 मिलों का मालिकाना हक़ प्राइवेट कंपनियों के पास है.

साल 1933 से लेकर 1940 तक बिहार में चीनी मिलों की संख्या बढ़ती गई और उत्पादन भी ख़ूब बढ़ा लेकिन इसके बाद चीनी मिलों की हालत बिगड़ने लगी.

इसके बाद साल 1977 से लेकर 1985 तक बिहार सरकार ने इन चीनी मिलों का अधिग्रहण शुरू किया.

इस दौरान दरभंगा की सकरी चीनी मिल, रयाम मिल, लोहट मिल, पुर्णिया की बनमनखी चीनी मिल, पूर्वी चंपारण और समस्तीपुर की मिलें सरकार के पास आ गईं.

साल 1997-98 के दौर में ये मिलें संभाली नहीं जा सकीं और एक के बाद एक मिलें बंद होने लगीं.

दरभंगा की सकरी मिल बिहार में बंद होने वाली सबसे पहली चीनी मिल मानी जाती है. साल 1977 में जब राज्य की कर्पूरी ठाकुर सरकार ने इस मिल का अधिग्रहण किया था तो लोगों में उम्मीद जगी कि सबकुछ ठीक हो जाएगा.

इस मिल में काम करने वाले अघनू यादव कहते हैं, "1945-1947 में बिहार में 33 मिल थीं आज 10 मिल चल रही हैं वो भी प्राइवेट में चलती हैं. हमारी ज़मीन गन्ना के लिए सबसे उपयुक्त है लेकिन हम गन्ना नहीं उगा सकते. इतनी लड़ाई लड़ी अब तो लगता है, बस पैसा मिल जाए हमारा."

सकरी मिल नौजवानों के लिए बस एक खंडहर भर है, उन्होंने बस इसके क़िस्से अपने बड़े-बुज़ुर्गों से सुने हैं.

विश्वजीत झा को नौकरी नहीं मिली तो वो पिता के साथ किसानी का काम करने लगे.

सकरी को लेकर अपनी याद साझा करते हुए वह कहते हैं, "हमारे बाबा कहते थे कि हमारा गुजर बसर इस मिल से चलता था. नीतीश जी के शासन में जो हमको याद है, वो ये कि इस मिल का शाम में गेट खुलता था और यहां की सारी मशीनें-पुर्जे ट्रकों में लाद कर ले जाई जाती थी."

"आज इस मिल का ताला खुलेगा तो इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा. इस मिल का निजीकरण कर दिया गया. सरकार कहती है कि मिल चलाने में घाटा होता है. तो सरकार को ही घाटा है तो आम लोग क्या कर सकेंगे. अगर सरकार सारे संसाधन लेकर चीनी नहीं बनवा सकती तो किसान क्या करेगा."

"लालू जी ने क्या किया? नीतीश जी ने क्या किया? नीतीश जी ने रोड बनवा दिया लेकिन क्या हम रोड पर बैठ कर खाना खाएं? हम तो इस लायक भी नहीं हैं कि अपने बच्चे को ठीक से पढ़ा सकें कि वो कहीं नौकरी पा जाए. लेकिन जब पढ़ेगा नहीं तो यहां तो कोई काम है नहीं तो, बाहर जा कर मज़दूरी ही करेगा."

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बंद पड़ी एक चीनी मिल

'सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए'
बात करते हैं साल 2005 की. बिहार स्टेट शुगर डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन के तहत तमाम चीनी मिलों को रिवाइव करने का काम सौंपा गया.

इसके बाद राज्य सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी गई जिसमें दरभंगा की रयाम मिल, लोहट मिल और मोतीपुर मिल को छोड़ कर अन्य सभी मिल को कृषि पर आधारित अन्य फ़ैक्ट्री में तब्दील करने का प्रस्ताव पेश किया गया. इस रिपोर्ट में सकरी मिल को डिस्टलरी (शराब कारखाना) बनाने का भी प्रस्ताव दिया गया.

साल 2008 में मिल की नीलामी हुई और इनमें से ज़्यादातर मिलों को प्राइवेट कंपनियों ने ख़रीदा. रयाम और सकरी मिल को श्री तिरहुत इंडस्ट्री ने ख़रीदा है.

लेकिन ये मिल कभी नहीं खुल पाईं. जिन कंपनियों को इन प्लांट में निवेश करके इन्हें चलाना था उन्होंने कभी इसमें निवेश ही नहीं किया.

रामेश्वर झा इस मिल के कर्मचारी रहे हैं. वह कहते हैं, "इन प्राइवेट कंपनियों को ये मिल चलानी ही नहीं थी, उन्होंने इसके सभी कलपुर्ज़े निकाले और बेच दिए."

वो ये भी मानते हैं कि "बिहार में इन प्राइवेट कंपनियों को चीनी मिल नहीं चलानी थी बल्कि इथनॉल का उत्पादन करना था."

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बंद पड़ी एक चीनी मिल

मौजूदा वक़्त में लोहट चीनी मिल, जिसके मुनाफ़े से 1933 में सकरी मिल खोली गई थी, वहां अब जंग लगी और खोखली हो चुकी लोहे की मशीनें निवेश के इंतज़ार में बर्बाद हो चुकी हैं.

रयाम मिल का हाल तो और भी बुरा है. वहां अब सिर्फ़ ज़मीन का टुकड़ा बचा हुआ है.

यहां काम करने वाले अपने बक़ाया वेतन का इंतज़ार करते हैं. सकरी मिल बंद हुई 1997 में लेकिन राज्य की नीतीश कुमार सरकार ने यहां के मज़दूरों को 2015 तक का वेतन देने की बात की है. और मुख्यमंत्री के इस आश्वासन में कई लोगों ने उन पैसों का हिसाब अभी ही लगा लिया है जो उन्हें मिलेंगे. लेकिन ये पैसे उन्हें कब मिलेंगे इसका जवाब उनके पास नहीं है.

मधुबनी की लोहट मिल में बतौर गार्ड काम करने वाले मति-उर-रहमान रोज़ चार किलोमीटर साइकिल चलाकर लोहट मिल आते हैं और इस जंगलनुमां कारख़ाने की देख-रेख करते हैं.

वह कहते हैं, "नीतीश कुमार ने कोशिश की थी कि कोई इसको लीज़ पर ले ले लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. अब तो सरकार भी छोड़ दी है और कोई पार्टी भी नहीं आ रही है."

"ये मिल चलता तो गन्ना किसान को फ़ायदा होता और लोगों को काम मिलता लेकिन मिल बंद हो गया तो किसान बिलकुल ख़त्म हो गया. इतने लोग हैं जिनका पैसा बिहार सरकार ने नहीं दिया, कई लोग को वेतन के इंतज़ार में ही रह गए. बीवी बच्चा पैसे के लिए रो रहा है. सरकार पैसा दे नहीं रही है."

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लोहट मिल के गार्ड

बंद जूट मिल खुलवाना क्या चुनावी पैंतरा?
समस्तीपुर के मुक्तापुर में रामेश्वर जूट मिल 6 जून 2017 से बंद थी, लेकिन 13 सितंबर 2020 को राज्य के उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी जो समस्तीपुर के ही कल्याणपुर से विधायक हैं, उनकी मौजूदगी में मिल दोबारा खुली.

जब हम मिल पर पहुंचे तो ऐसा लगा ही नहीं कि मिल में काम चल रहा है. वहां मौजूद लोगों से बात करने पर हमें पता चला कि मिल तो खुल गई लेकिन मिल खुलने की जो सबसे बड़ी निशानी होती है- हूटर बजना, वो अब तक मिल में नहीं बज रहा है.

फ़ैक्ट्री में बेहद कम संख्या में मज़दूर आ रहे हैं और लगभग 80 फ़ीसदी तक मिल बंद ही पड़ी हुई है. यहां काम करने वाले लोगों का मानना है कि इस मिल को चुनाव में लोगों की नाराज़गी कम करने के इरादे से खोला गया.

यहां सब-स्टाफ़ गार्ड के तौर पर तैनात संजय कुमार सिंह कहते हैं, "उद्योग मंत्री ने हमारे फ़ैक्ट्री मालिक से बात किया, बोला कि फ़ैक्ट्री का सारा बक़ाया दिया जाएगा. फ़ैक्ट्री का हूटर भी बजा. हम लोगों को लगा कि अब तो सब ठीक हो जाएगा, लेकिन आज इतने दिन हो गए. 11 करोड़ 65 लाख का बक़ाया जो बिहार सरकार के पास है वो नहीं मिला."

"मिल खुल गया है लेकिन हूटर नहीं बजता. उद्योग मंत्री ने मालिक से कहा था कि तीन दिन में ही पैसा मिल जाएगा, अब कहते हैं कि चुनाव संहिता लग गया, अभी नहीं मिलेगा."

राजू इस मिल में काम करने वाले मज़दूरों में से एक हैं. वह बताते हैं, "तीन साल का पैसा मिला नहीं है लेकिन मालिक क्या करेगा जो सरकार उसको पैसा नहीं देगी तो. वो तो अपने दम पर चला ही रहा है."

2017 में बंद होने से पहले इस मिल में 5000 लोग काम किया करते थे.

80 एकड़ में फैले इस मिल की शुरुआत 1926 में दरभंगा महाराज ने की थी, 1986 में इसे विन्सम इंडस्ट्रीज़ को बेच दिया गया लेकिन बाद में विन्सम ने इस कंपनी को पश्चिम बंगाल के एक व्यापारी बिनोद झा को बेच दिया.

इस मिल के बंद होने का कारण इसका लगातार आर्थिक संकट में फंसते जाना है.

मिल में साल 2012, 2014 और 2019 में आग लगी जिससे प्लांट का बड़ा नुक़सान हुआ. जूट मिल का बिजली बिल बकाया था और बिहार सरकार पर जूट मिल का 18 करोड़ रुपये बक़ाया था. पैसों के लेन-देन का मामला गहराता गया और ये मामला पटना हाईकोर्ट जा पहुंचा.

आख़िरकार मिल को बिजली बिल का भुगतान करने को कहा गया और सरकार को कंपनी के 18 करोड़ रुपये देने को कहा गया.

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जूट मिल में काम करने वाले एक मज़दूर

अभी भी जूट मिल का 11 करोड़ 65 लाख रुपये बिहार सरकार पर बक़ाया है. जूट मिल के मालिक ने उद्योग मंत्री के वादे पर मिल तो खोल दी लेकिन अब मिल के पास नया कच्चा माल लाने के पैसे नहीं हैं. लिहाज़ा मिल का हूटर बजाकर मिल नहीं खोली जा रही है.

मिल के कर्मचारी हरिया बताते हैं, "ये सब नेता लोग आता है और पागल बना कर जाता है. प्रिंस राज (समस्तीपुर से सांसद) भी आए थे चुनाव से पहले तो मिल का हूटर बजा था, बोले कि जब संसद में जाएंगे तो मिल का मुद्दा रखेंगे. बस उस दिन हूटर बज गया लेकिन एक दिन भी फ़ैक्ट्री नहीं खुला. ये भी (उद्योग मंत्री) यही करने आए हैं."

बिहार के सीमांचल का (कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया और अररिया) इलाक़ा जूट के उत्पादन के लिए जाना जाता है. लेकिन सरकार की ओर से बढ़ावा ना मिलने और किसी भी तरह का निवेश ना होने के कारण यहां का जूट उत्पादन 10 क्विंटल सालाना पर आ चुका है.

कटिहार को 'जूट कैपिटल' तक कहा जाता है. यहां दो मिलें थीं, एक नेशनल जूट मैन्युफ़ैक्चरिंग कॉर्पोरेशन मिल (एनजेएमसी) और दूसरी सनबायो मैन्युफ़ैक्चरिंग लिमिटेड जिसे पुराना मिल भी कहते हैं.

50 एकड़ से ज़्यादा के क्षेत्रफल में फैले एनजेएमसी को साल 2008 में ही बंद कर दिया गया. अब ज़िले में सनबायो मिल ही है. ये मिल काम तो कर रही है लेकिन इसकी हालत भी बुरी है.

जानकार मानते हैं कि बिहार का सीमांचल इलाक़ा देश भर में जूट के उत्पादन का केंद्र हो सकता था लेकिन सरकार ने कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया, अररिया में एक भी नई मिल नहीं लगवाई. जो थीं वो भी इन डेढ़ से दो दशकों में बर्बादी की ओर ही बढ़ीं.

एक वक़्त था जब इन मिलों में 4000 से 5000 लोग काम किया करते थे. आज बस दो सौ से ढाई सौ लोग मिल में काम करते हैं.

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रेशम का काम

सिल्क सिटी भागलपुर को सरकार कितना बचा पाई?
भागलपुर में एक चुनावी रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंच से कहा, "त्योहारों का समय है, इसलिए पर्व पर जो भी ख़रीदारी करें, वह स्थानीय हो, भागलपुरी सिल्क के कपड़े ख़रीदें, साड़ियां ख़रीदें. मंजूषा पेंटिंग को बढ़ावा दें."

भागलपुर ज़िला प्रशासन की वेबसाइट खोलें तो मोटे अक्षरों में 'सिल्क सिटी' चमकता दिख जाएगा लेकिन इस सिल्क को बनाने वालों की क्या हालत है, इसकी चर्चा कहीं नहीं मिलती.

यहां की स्पन सिल्क फ़ैक्ट्री 1993-94 के दौर में ही बंद हो गई और इसके बंद होने का कोई औपचारिक ऐलान नहीं हुआ बल्कि इसमें काम करने वाले कामगारों के वेतन का भुगतान कंपनी नहीं कर सकी और इसका संचालन रोक दिया गया.

17 सालों से ये फ़ैक्ट्री ऐसे ही बंद पड़ी है. इस मिल का मैदान जंगली घासों से भरा पड़ा है और लोग इसे डंपिंग यार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं.

भागलपुर के पुरैनी गांव में 95 फ़ीसदी लोग बुनकर हैं. अंसारी बाहुल्य इस गांव में लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सिल्क की बुनाई का ही काम करते आए हैं.

यहां रहने वाले 55 साल के सफ़ी अंसारी ख़ुद बुनकर हैं और उनका जवान बेटा भी बुनाई का ही काम करता है.

वह कहते हैं, "हमारा पूरा घर सिल्क का कपड़ा बनाता है और साड़ी बुनता है. मेरे बेटे को मैंने काम सिखाया है लेकिन काम आने से क्या होगा? स्किल इंडिया से नहीं होता, आपने (सरकार) हमको क्या दिया."

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रेशम के कीड़े के कोकून

सफ़ी पास में पड़े हैंडलूम की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "देखिए वो साड़ी आधे पर बुनकर छोड़ दी गई है क्योंकि तागा (धागा) ख़त्म है और तागा बनाने का पैसा नहीं है."

"हम अपना बुनकर का कार्ड लेकर जाएंगे तो भी हमको साहेब यहां-वहां दौड़ाएंगे. कौन बेटा हमको देखने के बाद बुनकर बनना चाहेगा. बाल सफ़ेद हो गया लेकिन घिसते ही रहे, खाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए ही पैसे पूरे नहीं हुए. किससे कहें कि हमसे काम सीख के बुनकर बनो. आप तो पहली बार आईं हैं वरना हमसे बात करने भी कौन आता है."

इस गांव के पिछड़ेपन का आलम ये है कि सरकार की नल-जल योजना तो दूर यहां पूरे गांव में दो से तीन घरों में ही नल है, बाकी सभी घरों में आज भी कुएं का पानी ही पिया जाता है.

आख़िर बीते डेढ़ दशकों में क्यों बिहार के उद्योग धंधों की तस्वीर नहीं बदल सकी. ये समझने के लिए हमने सत्तारुढ़ जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से संपर्क किया लेकिन नेताओं की चुनावी व्यस्तता के कारण हमें वक़्त नहीं मिल सका.

रेशम का धागा निकालती एक महिला

नेताओं के गोल-मोल जवाब
12 अक्टूबर को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक चुनावी रैली में कहा था, "ज़्यादा बड़ा उद्योग कहां लगता है, समुद्र के किनारे जो राज्य पड़ता है वहां लगता है. हम लोगों ने तो बहुत कोशिश की."

हालांकि लोगों ने सीएम के इस बयान की ख़ूब आलोचना की. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, यूपी जैसे कई राज्य जो लैंडलॉक्ड हैं वहां फैंक्ट्रियों की संख्या बिहार के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा हैं.

हालांकि छह ज़िलों में फैले बिहार के खस्ता औद्योगिक मिलों का हाल जानने के बाद हमने राजनीतिक पार्टियों से ये जानना चाहा कि आख़िरकार डेढ़-दो दशकों में राज्य के तमामा उद्योगों की हालत क्यों सुधारी नहीं जा सकी?

इस सवाल के जवाब में जनता दल यूनाइटेड के नेता संजय सिंह कहते हैं, "हमें 2005 में 1947 की हालत वाला बिहार मिला था. सड़कें, बिजली लोगों के पास नहीं थी हमने 15 साल में बिहार की सूरत बदली है. हमने साढ़े छह लाख लोगों को रोज़गार दिया है."

लेकिन 15 साल में उद्योग को लेकर क्या किया गया मेरे इस सवाल को दोहराने पर वह कहते हैं 'इसका जवाब तो आप उद्योग मंत्री जी से लीजिए.'

सत्ता में जेडीयू की सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इस सवाल का सीधा जवाब नहीं देते.

बिहार बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल भी इस सवाल का सीधा जवाब देने की बजाय कहते हैं कि "उद्योग की हालत 90 के दशक के आख़िर से ही बिगड़नी शुरू हुई. फ़ैक्ट्री के मालिकों से वसूली की जाती थी, उस जंगल राज से लोग इतना डरे की अपने ही फ़ैक्ट्री छोड़ कर भाग गए. नए व्यापारियों ने इस डर से ही प्लांट नहीं लगाया. अगर ये लोग सत्ता में आए तो फिर वही होगा."

इस पूरी बातचीत में उनकी सरकार के प्रयासों का ज़िक्र नहीं मिला लेकिन हमारे बार-बार सवाल दोहराने पर वह कहते हैं, "हमने ख़ूब काम किया है हमारे इलाक़े (बेतिया) में सुगौली और लौरिया चीनी मिल आज काम कर रही हैं."

दरअसल, मोतिहारी की सुगौली और लौरिया चीनी मिल का 2012 में दोबारा संचालन शुरू किया गया.

एचपीसीएल ने इस मिल को चालू किया. लेकिन अप्रैल 2020 को ख़बरें सामने आईं कि लौरिया मिल पर किसानों का 80.36 करोड़ और सुगौली पर किसानों का 58 करोड़ रुपये बक़ाया है. उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मिल मालिक से ये भुगतान करने को कहा था.

इन दो मिलों के सामने बिहार में औद्योगिकरण का स्याह चेहरा चमकता हुआ मानना थोड़ा बेमानी-सा लगता है.

इमेज स्रोत,

Hindustan Times

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

इसके बाद जब हम राज्य के उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी से मिले तो उन्होंने हमें सबसे पहले ये बताया कि आज वो बाइक पर सवार होकर अपने इलाक़े में निकले थे.

बिहार के उद्योग मंत्री होने के नाते उन्होंने क्या क़दम उठाए? इस सवाल पर वह कहते हैं, "हमको मंत्री पद ही दो महीने पहले मिला है."

लेकिन जूट मिल को लेकर वह अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं, "देखिए बक़ाया तो मिल के मालिक का बिजली बिल है. हां, बिहार सरकार पर देनदारी है लेकिन पहले उन्हें सूद के साथ चाहिए था, फिर बोले मूलधन ही दे दीजिए. हमने मिल खुलवा दी है लेकिन अब आचार संहिता लग गई तो क्या करें. लेकिन चुनाव नतीजे आते ही पैसा दे दिया जाएगा."

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उद्योग मंत्री महेश्वर हज़ारी

बिहार में बंद पड़ी मिलों पर वह कहते हैं अगर वो जीत कर सत्ता में आए तो इस बार उद्योगों का विकास होगा.

हालांकि नेता जी का ये बयान बिहार की जनता दशकों से सुन रही है, क्योंकि बिहार की इंडस्ट्री की ये बदहाली किसी एक पार्टी की सरकार की देन नहीं है, ऐसा लगता है कि इसे तमाम सरकारों ने कभी मुद्दा माना ही नहीं. लेकिन अब इन पार्टियों के लिए रोजग़ार मुद्दा है लेकिन जिन फ़ैक्ट्रियों से रोज़गार मिल रहा था वो किसी की ज़ुबां पर नहीं हैं.

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