Thursday, 31 July 2025

पूस की रात

 प्रेमचंद लिखित कहानी (iii) "पूस की रात"

हल्कू ने आकर स्त्री से कहा, ‘सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे.’

मुन्नी झाड़ू लगा रही थी. पीछे फिरकर बोली, ‘तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्मल कहां से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे. अभी नहीं.’


हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा. पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता. मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियां जमावेगा, गालियां देगा. बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी. यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और ख़ुशामद करके बोला, ‘ला दे दे, गला तो छूटे. कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा.’




मुन्नी उसके पास से दूर हट गई और आंखें तरेरती हुई बोली, ‘कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जो किसी तरह चुकने ही नहीं आती. मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई. बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है. पेट के लिए मजूरी करो. ऐसी खेती से बाज आए. मैं रुपए न दूंगी, न दूंगी.’


हल्कू उदास होकर बोला, ‘तो क्या गाली खाऊं?’


मुन्नी ने तड़पकर कहा, ‘गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?’


मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गईं. हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था.


उसने जाकर आले पर से रुपए निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए. फिर बोली, ‘तुम छोड़ दो अबकी से खेती. मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी. किसी की धौंस तो न रहेगी. अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस.’


हल्कू ने रुपए लिए और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो. उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपए कम्मल के लिए जमा किए थे. वह आज निकले जा रहे थे. एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था


(2)


पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे. हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कांप रहा था. खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुंह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था. दो में से एक को भी नींद न आती थी. हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा, ‘क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहां क्या लेने आए थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूं? जानते थे, मै यहां हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूं, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आए. अब रोओ नानी के नाम को. जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलाई और अपनी कूं-कूं को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया. उसकी श्वान-बुध्दि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूं-कूं से नींद नहीं आ रही है. हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा, ‘कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे. यह रांड पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है. उठूं, फिर एक चिलम भरूं. किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका. यह खेती का मजा है! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाए तो गरमी से घबड़ाकर भागे. मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ- कम्मल. मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय. तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!’ हल्कू उठा, गड्ढे में से ज़रा-सी आग निकालकर चिलम भरी. जबरा भी उठ बैठा. हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, ‘पिएगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है.’ जबरा ने उसके मुंह की ओर प्रेम से छलकती हुई आंखों से देखा. हल्कू, ‘आज और जाड़ा खा ले. कल से मैं यहां पुआल बिछा दूंगा. उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा.’ जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिए और उसके मुंह के पास अपना मुंह ले गया. हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी. चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊंगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा. कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाए हुए था. जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया. कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाए हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था. जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी. अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता. वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुंचा दिया. नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वार खोल दिए थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था. सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई. इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नई स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडे झोकों को तुच्छ समझती थी. वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूंकने लगा. हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया. हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूंकता रहा. एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता. कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भांति ही उछल रहा था.l


(3)


एक घंटा और गुज़र गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई। ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहा है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाक़ी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े। ऊपर आ जायँगे तब कहीं सबेरा होगा। अभी पहर से ऊपर रात है।


हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग़ था। पतझड़ शुरु हो गई थी। बाग़ में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था। हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियाँ बटोरूँ और उन्हें जलाकर ख़ूब तापूँ। रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देख तो समझे कोई भूत है। कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।


उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बग़ीचे की तरफ़ चला। जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा।


हल्कू ने कहा—अब तो नहीं रहा जाता जबरू। चलो बग़ीचे में पत्तियाँ बटोरकर तापें। टाँठे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोएँगें। अभी तो बहुत रात है।


जबरा ने कूँ-कूँ करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बग़ीचे की ओर चला।


बग़ीचे में ख़ूब अँधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था। वृक्षों से ओस की बूँदे टप-टप नीचे टपक रही थीं।


एकाएक एक झोंका मेहँदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया।


हल्कू ने कहा—कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है?


जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। उसे चिंचोड़ रहा था।


हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। ज़रा देर में पत्तियों का ढेर लग गया। हाथ ठिठुरे जाते थे। नंगे पाँव गले जाते थे। और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा।


थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी। उस अस्थिर प्रकाश में बग़ीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर सँभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था।


हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था। एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पाँव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आए सो कर। ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था।


उसने जबरा से कहा—क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?


जब्बर ने कूँ-कूँ करके मानो कहा—अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?


'पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते।'


जब्बर ने पूँछ हिलाई।


'अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें। देखें, कौन निकल जाता है। अगर जल गए बच्चा, तो मैं दवा न करूँगा।'


जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!


मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी।


यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ़ निकल गया। पैरों में ज़रा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी। जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ।


हल्कू ने कहा—चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ। वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया।


(4)


पत्तियाँ जल चुकी थीं। बग़ीचे में फिर अँधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाक़ी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर ज़रा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी!


हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके बदन में गर्मी आ गई थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था।


जबरा ज़ोर से भूँककर खेत की ओर भागा। हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है। शायद नीलगायों का झुंड था। उनके कूदने-दौड़ने की आवाज़ें साफ़ कान में आ रही थी। फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं हैं। उनके चबाने की आवाज़ चर-चर सुनाई देने लगी।


उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता। नोच ही डाले। मुझे भ्रम हो रहा है। कहाँ! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता। मुझे भी कैसा धोखा हुआ!


उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई—जबरा, जबरा।


जबरा भूँकता रहा। उसके पास न आया।


फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली। अब वह अपने को धोखा न दे सका। उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा। वह अपनी जगह से न हिला।


उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई—लिहो-लिहो!लिहो!!


जबरा फिर भूँक उठा। जानवर खेत चर रहे थे। फसल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं।


हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन क़दम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा।


जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था। अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था।


उसी राख के पास गर्म ज़मीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया।


सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ़ धूप फैल गई थी और मुन्नी कह रही थी—क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया।


हल्कू ने उठकर कहा—क्या तू खेत से होकर आ रही है?


मुन्नी बोली—हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया। भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या हुआ?


हल्कू ने बहाना किया—मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है। पेट में ऐसा दरद हुआ कि मै ही जानता हूँ!


दोनों फिर खेत के डाँड़ पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों।


दोनों खेत की दशा देख रहे थे। मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था।


मुन्नी ने चिंतित होकर कहा—अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी।


हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा—रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।

Wednesday, 23 July 2025

शतरंज के खिलाड़ी

लेखक परिचय

हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद का अपना एक विशिष्ट स्थान है। वह बीसवीं सदी के उन लेखकों में से थे जिन्होंने अपनी रचनाओं में यथार्थ की जीती-जागती तस्वीर पाठकों के सामने रखी। उनकी अधिकांश रचनाएं ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि में लिखी गई हैं।

31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास स्थित छोटे-से गांव लमही में प्रेमचंद का जन्म हुआ था। उनका पूरा नाम था धनपत राय श्रीवास्तव। बचपन से ही उन्हें पुस्तकों से बहुत लगाव था। सबसे पहले उन्होंने 'नवाबराय' उपनाम से अपनी रचनाएं लिखीं। बाद में उन्होंने 'प्रेमचंद' उपनाम अपनाया। उनकी अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं- गबन, गोदान, सेवासदन और रंगभूमि। उपन्यास के अतिरिक्त प्रेमचंद ने सैकड़ों कहानियां भी लिखीं।

8 अक्टूबर, 1936 को 56 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।

शतरंज के खिलाडी 


Munshi Premchand
शतरंज के खिलाड़ी

वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र , मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौसर बिछी हुई है; पौ-बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)। इसलिए अगर मिरज़ा सज्जादअली और मीर रौशनअली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिंता न थी; कि घर में बैठे चखौतियाँ करते थे। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम ! घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता कि खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता- चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश हो कि कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। मिरज़ा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं। मगर यह बात न थी मिरज़ा के घर के और लोग उनसे इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे- बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिरज़ा की बेगम साहबा को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती रहती थीं, तब तक बाजी बिछ जाती थी। और रात को जब सो जाती थीं, तब कही मिरज़ाजी घर में आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं- क्या पान माँगे हैं? कह दो, आकर ले जायँ। खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलायें। पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीर साहब से। उन्होंने उनका, नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिरज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम मीर साहब ही के सर थोप देते थे।

एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा- जाकर मिरज़ा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लायें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी तो मिरज़ाजी ने कहा- चल, अभी आते हैं। बेगम साहबा का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा- जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायेंगी। मिरज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किस्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले- क्या ऐसा दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?


मीर- अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरतें नाजुक-मिजाज होती ही हैं।


मिरज़ा- जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ ! दो किस्तों में आपकी मात होती है।

मीर- जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय। पर जाइए, सुन आइए। क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?

मिरज़ा- इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।

मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।

मिरज़ा- अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है।

मीर- कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।

मिरज़ा- अच्छा, एक चाल और चल लूँ।

मीर- हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आयेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।

मिरज़ा साहब मजबूर होकर अंदर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा- तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है ! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते ! नौज, कोई तुम-जैसा आदमी हो !


मिरज़ा- क्या कहूँ, मीर साहबा मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।


बेगम- क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं। उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला?

मिरज़ा- बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है।

बेगम- दुत्कार क्यों नहीं देते?

मिरज़ा- बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिज़ा करना ही पड़ता है।

बेगम- तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ। नाराज हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हरिया; जा बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे; आप तशरीफ ले जाइए।

मिरज़ा- हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना ! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हरिया, कहाँ जाती है।


बेगम- जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूँ?


यह कहकर बेगम साहबा झल्लाई हुई दीवानखाने की तरफ चलीं। मिरज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे- खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम है। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाय। लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गयीं, पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी, मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बंद हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गयीं। चुपके से घर की राह ली।

मिरज़ा ने कहा- तुमने गजब किया।

बेगम- अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते ! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है।

मिरज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले- मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इंतजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?

मिरज़ा- खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?

मीर- इसका क्या गम है। इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस यहीं जमें।

मिरज़ा- लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा? घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद जिंदा न छोड़ेंगी।


मीर- अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायेंगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए।

2



मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं।

उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में कोई आये, कोई जाये, उनसे कुछ मतलब न था। अब आठों पहर की धौंस हो गयी। पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का। और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जाकर कहते- हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी। दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल खेलना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लायेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई न कोई आफत जरूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गये हैं। सारे मुहल्ले में यही चरचा रहती है। हुजूर का नमक खाते हैं, अपने आक़ा की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है? मगर क्या करें? इस पर बेगम साहबा कहती हैं- मैं तो खुद इसको पसंद नहीं करती। पर वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाय।

मुहल्ले में भी जो दो-चार पुराने जमाने के लोग थे, आपस में भाँति-भाँति की अमंगल कल्पनाएँ करने लगे- अब खैरियत नहीं। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।

राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाँडों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अंग्रेज कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।

खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले बनाये जाते; नित्य नयी व्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती; मिरज़ाजी रूठकर अपने घर चले जाते। मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रात भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनों मित्र बैठे हुए शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी ! यह तलबी किस लिए हुई है? अब खैरियत नहीं नजर आती। घर के दरवाजे बंद कर लिये। नौकरों से बोले- कह दो, घर में नहीं हैं।

सवार- घर में नहीं, तो कहाँ हैं?

नौकर- यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?

सवार- काम तुझे क्या बताऊँगा? हुजूर में तलबी है। शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी ! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा !

नौकर- अच्छा, तो जाइए, कह दिया जायगा?

सवार- कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा, साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।

सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिरज़ाजी से बोले- कहिए जनाब, अब क्या होगा?

मिरज़ा- बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी तलबी भी न हो।

मीर- कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है।

मिरज़ा- आफत है, और क्या। कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।

मीर- बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नख्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी। हजरत आकर आप लौट जायँगे।

मिरज़ा- वल्लाह, आपको खूब सूझी ! इसके सिवाय और कोई तदबीर ही नहीं है।

इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी, तुमने खूब धता बताया।

उसने जवाब दिया- ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूल कर भी घर पर न रहेंगे।

3
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलौरियाँ भरे, गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसजिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफ़उद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मदरिया ले लेते, और मसजिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। किश्त, शह आदि दो-एक शब्दों के सिवा उनके मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दोपहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खाते, और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम-क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था।

इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इनकी ज़रा भी फ़िक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, जो बेकार में पकड़ जायँ। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त ही हजम करना चाहते थे।

एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिरज़ा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखायी दिये। वह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।

मीर साहब बोले- अंग्रेजी फौज आ रही है; खुदा खैर करे।

मिरज़ा- आने दीजिए, किश्त बचाइए। यह किश्त।

मीर- जरा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो जायँ !

मिरज़ा- देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त !

मीर- तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे कैसे-कैसे जवान हैं। लाल बन्दरों के-से मुँह। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।

मिरज़ा- जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा। यह किश्त !

मीर- आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है और आपको किश्त की सूझी है ! कुछ इसकी भी खबर है कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?

मिरज़ा- जब घर चलने का वक्त आयेगा, तो देखा जायगा- यह किश्त ! बस, अबकी शह में मात है।

फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी।

मिरज़ा- आज खाने की कैसे ठहरेगी?

मीर- अजी, आज तो रोज़ा है। क्या आपको ज्यादा भूख मालूम होती है?

मिरज़ा- जी नहीं। शहर में न जाने क्या हो रहा है !

मीर- शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।

दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये। अबकी मिरज़ा जी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।

मिरज़ा ने कहा- हुजूर नवाब साहब को जालिमों ने कैद कर लिया है।

मीर- होगा, यह लीजिए शह।

मिरज़ा- जनाब जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।

मीर- रोया ही चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा। यह किश्त !

मिरज़ा- किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्दनाक हालत है।

मीर- हाँ, सो तो है ही- यह लो, फिर किश्त ! बस, अबकी किश्त में मात है, बच नहीं सकते।

मिरज़ा- खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह !

मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए फिर नवाब साहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और यह मात ! लाना हाथ !

बादशाह को लिये हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिरज़ा ने फिर बाजी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा- आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिरज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।

4

शाम हो गयी। खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया। अबाबीलें आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटीं। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। मिरज़ाजी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रंग भी अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके सँभलकर खेलते थे लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजलें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हों। मिरज़ाजी सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप को मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे। पर ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकला जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे- जनाब, आप चाल बदला न कीजिए। यह क्या कि एक चाल चले, और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो एक बार चल दीजिए; यह आप मुहरे पर हाथ क्यों रखते हैं? मुहरे को छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइये ही नहीं। आप एक-एक चाल आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली ! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए।

मीर साहब का फरजी पिटता था। बोले- मैंने चाल चली ही कब थी?

मिरज़ा- आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए- उसी घर में !

मीर- उस घर में क्यों रखूँ? मैंने हाथ से मुहरा छोड़ा ही कब था?

मिरज़ा- मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे।

मीर- धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तकदीर से होती है, धाँधली करने से कोई नहीं जीतता?

मिरज़ा- तो इस बाजी में तो आपकी मात हो गयी।

मीर- मुझे क्यों मात होने लगी?

मिरज़ा- तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रक्खा था।

मीर- वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।

मिरज़ा- क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा।

तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था न वह। अप्रासंगिक बातें होेने लगीं, मिरज़ा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते। वे तो हमेशा, घास छीला करते, आप शतरंज क्या खेलिएगा। रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने से ही कोई रईस नहीं हो जाता।

मीर- क्या? घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आ रहे हैं।

मिरज़ा- अजी, जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावरची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है।

मीर- क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह में कालिख लगाते हो- वे ही बावरची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आये हैं।

मिरज़ा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर।

मीर- जबान सँभालिये, वरना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखें दिखायीं कि उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?

मिरज़ा- आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर, आइए। आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर।

मीर- तो यहाँ तुमसे दबनेवाला कौन?

दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी जमाना था; सभी तलवार, पेशकब्ज, कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था- बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दे दीं। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिये।

अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे !

चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखतीं और सिर धुनती थीं।

Monday, 14 July 2025

मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'नशा' का सारांश

प्रेमचंद की कहानी "नशा" में, दो दोस्तों ईश्वरी और बीर के बीच सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण उत्पन्न होने वाले नशे को दर्शाया गया है। ईश्वरी एक धनी जमींदार का बेटा है, जबकि बीर एक गरीब क्लर्क का। कहानी में, बीर जमींदारों की आलोचना करता है और उन्हें "खून चूसने वाली जोंक" कहता है, जबकि ईश्वरी जमींदारों का पक्ष लेता है। एक दिन, बीर ईश्वरी के घर जाता है और वहां की विलासिता देखकर "नशे" में डूब जाता है। वह अमीरी के नशे में चूर होकर एक गरीब आदमी को अपमानित करता है, लेकिन बाद में उसे अपनी गलती का एहसास होता है। कहानी यह दर्शाती है कि नशा केवल शराब या ड्रग्स का ही नहीं, बल्कि धन, सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा का भी हो सकता है, और यह नशा मनुष्य को विवेकहीन बना सकता है। 

मुख्य बातें:

सामाजिक असमानता:

कहानी अमीर और गरीब के बीच की खाई को उजागर करती है, और यह भी दिखाती है कि कैसे यह खाई लोगों के बीच मतभेद पैदा करती है। 

नशे का प्रकार:

कहानी में नशा केवल शराब या ड्रग्स तक सीमित नहीं है, बल्कि धन, सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा का भी नशा है, जो लोगों को विवेकहीन बना सकता है। 

आत्म-चिंतन:

बीर का अनुभव उसे अपनी गलतियों पर विचार करने और अपनी सामाजिक स्थिति को समझने के लिए मजबूर करता है। 

मनोवैज्ञानिक पहलू:

कहानी मनोवैज्ञानिक पहलू को भी छूती है, यह दर्शाती है कि कैसे सामाजिक और आर्थिक कारक व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित कर सकते हैं। 

नैतिक शिक्षा:

कहानी एक नैतिक शिक्षा प्रदान करती है, जो हमें दिखाती है कि हमें अपनी सामाजिक स्थिति से ऊपर उठकर दूसरों के प्रति सहानुभूति र

खनी चाहिए। 

मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'परीक्षा' का सारांश

 मुंशी प्रेमचंद की कहानी 

"परीक्षा" कहानी, जो मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई है, एक नैतिक कहानी है जो मनुष्य के चरित्र की परीक्षा पर केंद्रित है। कहानी में, रियासत के दीवान का पद खाली होने पर, एक महीने की अवधि के लिए उम्मीदवारों की परीक्षा ली जाती है। इस परीक्षा में, एक गरीब किसान की मदद करने वाले एक उम्मीदवार को, जो घायल होने के बावजूद, अपनी उदारता और साहस का परिचय देता है, अंततः दीवान चुना जाता है। 

कहानी का सारांश:

देवगढ़ रियासत के दीवान सुजान सिंह, बुढ़ापे के कारण, अपने पद से त्यागपत्र देने का फैसला करते हैं। राजा, सुजान सिंह की बुद्धिमत्ता और न्यायप्रियता से प्रभावित होकर, नए दीवान की नियुक्ति का काम भी उन्हें ही सौंपते हैं। 

सुजान सिंह, नए दीवान की तलाश में, एक महीने की अवधि के लिए उम्मीदवारों की परीक्षा लेने का निर्णय लेते हैं। इस परीक्षा में, उम्मीदवारों को रियासत में रहने, उनके आचरण और व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है। 

इस दौरान, कई उम्मीदवार देवगढ़ पहुंचते हैं। एक दिन, हॉकी का खेल खेलने के बाद, उम्मीदवार अपने-अपने रास्ते जा रहे होते हैं। रास्ते में, एक गरीब किसान की अनाज से भरी बैलगाड़ी कीचड़ में फंस जाती है। 

कई उम्मीदवार, खेल की थकान और कीचड़ से बचने के कारण, उस किसान की मदद करने से इनकार कर देते हैं। लेकिन, पंडित जानकीनाथ, जो घायल होने के बावजूद, उस किसान की मदद करने के लिए आगे आते हैं। 

जानकीनाथ, अपनी चोट की परवाह किए बिना, किसान की गाड़ी को कीचड़ से निकालने में मदद करते हैं। इसके बाद, किसान उन्हें आशीर्वाद देकर चला जाता है। 

एक महीने बाद, सुजान सिंह नए दीवान की घोषणा करते हैं। वे पंडित जानकीनाथ को दीवान पद के लिए चुनते हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल बुद्धिमान होने का प्रमाण दिया, बल्कि एक गरीब और असहाय व्यक्ति की मदद करके, अपने साहस और उदारता का भी परिचय दिया। 

कहानी का संदेश:

यह कहानी हमें सिखाती है कि मनुष्य की असली परीक्षा उसकी बुद्धि, साहस और उदारता में होती है, खासकर प्रतिकूल परिस्थितियों में। यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि हमें दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, भले ही हमें इसके लिए कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़े

Monday, 7 July 2025

Light: Reflection and Refraction Class 10

Nature of Light:


1. Particle Nature 

2. Ray Nature 

Bean of Light 

Bunch of rays is called beam of light 

Types of Beam



Reflection of Light


Reflection - The bouncing back of a particle or wave that strikes the boundary between two media.

Law of Reflection - 

1. The angle of incidence equals the angle of reflection.

2. Incident rays and reflected rays make equal angles with a line perpendicular to the reflecting surface, called the normal.


Specular or Regular Reflection -

This occurs when parallel rays of light hit a smooth surface.

All the light rays reflect at the same angle because of the smooth surface. So you can see a clear image.

The reflection of wave in one direction from a smooth surface.

Diffuse Reflection - The reflection of waves in many directions from a rough surface.

Each ray obeys the law of reflection.


What are Mirrors?

A mirror is an object with a surface that has good specular reflection, able to produce an image.

A surface capable of reflecting sufficient diffused light to form an image of an object placed in front of it.

Plane (flat) Mirrors can only produce virtual images.

Virtual Image - An image formed from light rays that only appear to be coming from behind the reflecting surface. This image cannot be obtained on a screen.

Characteristics of Images in Plane Mirror

1. Image located as far into the mirror as object is in front of mirror.

2. Virtual Image

3. Erect Image

4. Same Size

5. Lateral Inversion (Reverse left to right(

6. Image form directly in front of object.

What are Spherical Mirrors?

Spherical Mirror is a cut part of a hollow glass sphere, such that one of its sides has been polished, and so the other side reflects the light falling on its surface.

Concave and convex mirrors shown as part of complete hollow sphere.

Here are the definitions of the terms related to a concave mirror:

1. Pole 

The pole is the geometrical center of the reflecting surface of the concave mirror. It is usually denoted by the letter P.

2. Principal Axis

The principal axis is the straight line that passes through the pole and the center of curvature of the mirror. It is perpendicular to the surface of the mirror at the pole.

3. Centre of Curvature

The centre of curvature is the center of the sphere from which the concave mirror is a part. It lies in front of the mirror and is denoted by the letter C.

4. Focus (Principal Focus)

The focus of a concave mirror is the point on the principal axis where parallel rays of light (parallel to the principal axis) converge after reflection. It is denoted by the letter F.

5. Radius of Curvature

The radius of curvature is the distance between the pole (P) and the centre of curvature (C) of the mirror. It is denoted by the letter R.

6. Focal Length

The focal length is the distance between the pole (P) and the focus (F) of the mirror. It is denoted by the letter f.
For a concave mirror:

f = R/2

Rules to Draw Ray Diagram 
There are some rules which we use to obtain images in a ray diagram Let's look at them

Rule 1 - Ray parallel to principal axis will pass through focus after reflection..


Rule 2 - Ray passing through focus will become parallel to principal axis after reflection.


Rule 3 - Ray passing through Center of Curvature will follow the same path back after reflection

Rule 4 - Ray incident at pole is reflected back making same angle with principal axis.



Applications of Concave Mirrors

Used in shaving mirrors: 
Converging mirrors are most widely used in shaving because they have reflective and curved surfaces. At the time of shaving, the concave mirror forms an enlarged as well as erect image of the face when the concave mirror is held closer to the face.
The concave mirror used in the ophthalmoscope: These mirrors are used in optical instruments as in ophthalmoscopes for treatment.

Uses of the concave mirrors in astronomical telescopes
These mirrors are also widely used in making astronomical telescopes. In an astronomical telescope, a converging mirror of a diameter of about 5 meters or more is used as the objective.

Concave mirrors used in the headlights of vehicles: 
Converging mirrors are widely used in the headlights of automobiles and in motor vehicles, torchlight, railway engines, as reflectors. The point light source is kept at the focus of the mirror, so after reflection, the light rays travel over a huge distance as parallel light beams of high intensity.

Used in solar furnaces: 
Large converging mirrors are used to focus the sunlight to produce heat in the solar furnace. They are often used in solar ovens to gather a large amount of solar energy in the focus of the concave mirror for heating, cooking, melting metals.

Image Formed by Concave Mirror 

1. When object is at infinity.
Position of Image: At focus
Size of Image: Highly diminished 
Nature of Image: Real and inverted 

2. When object is beyond 'C' (centre of curvature)

Position of Image: Between C and F
Size of Image: Diminished (smaller than object)
Nature of Image: Real and inverted 

3. When object is at 'C' (centre of curvature)

Position of Image: At 'C' ( centre of curvature)
Size of Image: Equal in size of object (same size of object)
Nature of Image: Real and inverted 

4. When object is between 'C' and 'F'
Position of Image: Beyond 'C' ( centre of curvature)
Size of Image: Enlarged ( bigger than object)
Nature of Image: Real and inverted 

5. When object is at 'F' (focus).
Position of Image: At infinity 
Size of Image: Highly Enlarged 
Nature of Image: Real and inverted 

6. When object is between 'F' ( focus) and 'P' (pole).

Position of Image: Behind the mirror 
Size of Image: Enlarged 
Nature of Image: Virtual and Erect 

CONVEX MIRROR 

Rules to Draw Ray Diagram 

Rule 1
For concave mirror: A ray of light parallel to the principal axis will pass through the focus after reflection.
          Concave Mirror.               Convex Mirror 

For Convex mirror: A ray of light parallel to the principal axis will appear to come from focus.

Rule 2
For concave mirror: A ray passing through the principal focus(F) becomes parallel to the principal axis.
          Concave Mirror.               Convex Mirror 

For convex mirror: A ray directed towards principal focus becomes parallel to the principal axis.

Rule 3
For Concave mirror: A ray passing through the centre of curvature will take the same path after reflection.

         Concave Mirror.                 Convex Mirror 

For convex mirror: A ray directed towards the centre of curvature will take the same path after reflection

Rule 4

For any ray incident at any angle at the pole(P), the reflected ray follows the law of reflection for both concave as well as convex mirrors.
          Concave Mirror.                Convex Mirror 

Uses of Convex Mirrors

1. Rearview Mirrors in Vehicles: Convex mirrors are often used as rearview mirrors in vehicles. These curved mirrors help drivers see more of what’s behind them, making it easier to check for blind spots and see a bigger area. This makes driving safer and helps stop accidents from happening.

2. Security and Surveillance: Arched mirrors are regularly utilized in security and observation frameworks. Their capacity to supply a wide, all encompassing see makes them perfect for observing ranges where comprehensive perception is pivotal, such as in stores, shopping shopping centers, stopping parts, and other open spaces.

3. Stores and Retail Outlets: In stores, general stores, and retail outlets, raised mirrors are deliberately put to empower workers to watch different walkways or corners from a single vantage point. This makes a difference anticipate robbery, shoplifting, and guarantees superior client help.

4. Street Security: Raised mirrors are utilized on streets, particularly at convergences and sharp twists, to improve perceivability for drivers. These mirrors permit drivers to expect oncoming activity or people on foot, in this way decreasing the probability of mishaps.

Image formation by convex mirror 

1. Whenever the object is positioned at infinity, a virtual, upright, substantially decreased, and point size picture is generated behind the mirror at the focus.

2. When the object is put at a limited distance from the convex mirror, a virtual, reduced, and erect image is generated between the focus of the convex mirror and the pole.


NEW CARTESIAN CONVENTION


Reference Point: All distances are measured from the pole (center) of the mirror, which acts as the origin (0,0) in a coordinate system. 

Direction of Incident Light: The direction of the incoming light is considered the positive direction. 

Object Distance (u): The distance between the object and the pole is always negative for real objects placed in front of the mirror. 

Image Distance (v): The distance between the image and the pole. It's positive for virtual images (formed behind the mirror) and negative for real images (formed in front of the mirror). 

Focal Length (f): The distance between the pole and the focal point. It's positive for convex mirrors and negative for concave mirrors. 

Height of Object (h): Always considered positive as the object is typically placed above the principal axis. 

Height of Image (h'): Positive for erect images and negative for inverted images. 

A convex lens, also known as a converging lens, is thicker at the center and thinner at the edges. It converges parallel rays of light to a single point called the focus (F). This ability to converge light makes convex lenses essential in various optical devices. 

The type, size, and nature of the image formed by a convex lens depend on the object's position relative to the lens and its focal point. 
Here's a breakdown of image formation for different object positions:

Object at Infinity: The image is formed at the focal point (F) on the opposite side of the lens.
Nature: Real and inverted.
Size: Highly diminished (point-sized

When an object is placed beyond the centre of curvature, the real image is formed between the centre of curvature and focus. The image size will not be the same as the object. It will be diminished in size



When an object is at the centre of curvature, the real image is formed at the other centre of curvature. The size of the image is the same as compared to that of the object.



When an object is placed in between the centre of curvature and focus, the real image is formed behind the centre of curvature. The size of the image is larger than that of the object.





When an object is placed at the focus, a real image is formed at infinity. The size of the image is much larger than that of the object.




When an object is placed in between focus and optical centre, a virtual image is formed. The size of the image is larger than that of the object.








Winners

विज्ञान कहता है कि एक वयस्क स्वस्थ पुरुष एक बार संभोग के बाद जो वीर्य स्खलित करता है, उसमें 400 मिलियन शुक्राणु होते हैं...... ये 40 करोड़ श...