संत तुलसीदासजी जयंती

संत तुलसीदासजी जयंती
संतों ने एक स्वर से घोषणा की है कि जीव का परम पुरुषार्थ एकमात्र भगवद्प्रेम ही है । शेष जो चार पुरुषार्थ हैं, उनमें किसी-न-किसी रूप में ‘स्व’ सर्वथा लगा ही रहता है । एक भगवद्प्रेम ही ऐसा है जिसमें ‘स्व’ भी सर्वथा समर्पित हो जाता है, विलीन हो जाता है ।

प्रारम्भ से ही संतों की यह प्रेरणा रही है कि ‘सभी जीव उसी अनन्त भगवद्प्रेम की प्राप्ति के लिये सचेष्ट हों और उसे प्राप्त कर लें…’ और वे अपनी अन्तरात्मा से पूर्ण शक्ति से इसके लिए प्रयत्न करते रहे हैं । योग, कर्म, ज्ञान, ध्यान, जप, तप, विद्या, व्रत सब का एकमात्र यही उद्देश्य है कि भगवान के चरणों में अनन्य अनुराग हो जाय । वेदों ने भगवान के निर्गुण-सगुण स्वरूप की महिमा गाकर यही प्रयत्न किया है कि सब लोग भगवान से प्रेम करें ।

शास्त्रों ने सांसारिक वस्तुओं का विश्लेषण करके उनकी अनित्यता, दुःखरूपता और असत्यता दिखलाकर उनसे प्रेम करने का निषेध किया है और केवल भगवान से ही प्रेम करने का विधान किया है । यह सब होने पर भी अनादि काल से माया-मोह के चक्कर में फँसे हुए जीव भगवान की ओर जैसा चाहिए उस रूप में अग्रसर नहीं हुए । कुछ आगे बढे भी तो साधनों से पार जाना कठिन हो गया । गन्तव्य तक विरले ही पहुँच सके । भगवान को स्वयं इस बात की चिन्ता हो गयी । उन्होंने सोचा कि :

‘यदि इस क्रम से इतने स्वल्प जीव मेरे प्रेम की उपलब्धि कर सकेंगे, तब तो कल्पों में भी प्रेम पानेवालों की संख्या अंगुली पर गिनने के बराबर ही रहेगी । इसलिये मुझे स्वयं जीवों के बीच चलना चाहिए, प्रकट होना चाहिए और ऐसी लीला करनी चाहिए कि मेरे अन्तर्धान होने पर भी वे मेरे गुणों और लीलाओं का कीर्तन, श्रवण एवं स्मरण करके मेरे सच्चे प्रेम को प्राप्त कर सकें ।’

भगवान आये और उनके गुण, लीला स्वरूप के कीर्तन, श्रवण, स्मरण की प्रेरणा भी आयी । अभी लीला-संवरण हो भी नहीं पाया था कि वाल्मीकिजी ने उन्हीं के पुत्र लव-कुश के द्वारा उनकी कीर्ति का गायन कराकर सुना दिया और भगवान से उनकी यथार्थता की स्वीकृति भी करवा ली । जगत में आदिकवि हुए वाल्मीकि, आदिकाव्य हुआ उनके द्वारा किया हुआ भगवान श्रीराम के गुण और लीला का कीर्तन । श्री हनुमानजी को वह कितना प्रिय लगा होगा, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता । उन्होंने अपने मन में विचार किया कि : ‘यह काव्य-संगीत अमर रहे… परंतु यह तो संस्कृत वाणी में है न ! आगे चलकर जब साधारण लोग संस्कृत से अनभिज्ञ हो जायेंगे तब वे इस रस का आस्वादन कैसे कर सकेंगे ?’ उन्हें इस बात की चिन्ता हो गयी ।
श्री हनुमानजी ने वाल्मीकि महामुनि की योग्यता, उनका अधिकार हर तरह से निरख लिया, परख लिया । अन्त में उन्होंने वाल्मीकिजी से कहा कि : ‘‘आपके हृदय में भगवान का प्रेम है । आपको संसार का कोई भय नहीं है । आप कलियुग में एक बार फिर से प्रगट होना । उस समय भी भगवान श्रीराम के गुण और लीलाओं को आम जनता के लिए सुलभ कर देना । मैं आपकी रक्षा करूँगा ।”
श्री वाल्मीकिजी ने उनकी आज्ञा स्वीकार की । उन्होंने कलियुग में जन्म लेकर श्रीरामलीला का मधुमय संगीत, गायन करने का वचन दिया । वे ही तुलसीदासजी के रूप में प्रकट हुए ।

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